ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
चुप थे पर श्रद्धा ही बोली- ''देखो यह तो बन गया नीड़,
पर इसमें कलरव करने को आकुल न हो रही अभी भीड़।
तुम दूर चले जाते हो जब-तब लेकर तकली, यहां बैठ,
मैं उसे फिराती रहती हूं अपनी निर्जनता बीच पैठ।
मैं बैठी गाती हूं तकली के प्रतिवर्तन में स्वर विभोर-
'चल री तकली धीरे-धीरे प्रिय गये खेलने की अहेर'।
जीवन का कोमल तंतु बढ़े तेरी ही मंजुलता समान,
चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटें सुंदरता का कुछ बढ़े मान।
किरणों-सी तू बुन दे उज्ज्वल मेरे मधु-जीवन का प्रभात,
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल ढक ले प्रकाश से नवल गात।
वासना भरी उन आंखों पर आवरण डाल दे कांतिमान,
जिसमें सौंदर्य निखर आये लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान।
अब वह आगन्तुक गुफा बीच पशु-सा न रहे निर्वसन-नग्न
अपने अभाव की जड़ता में वह रह न सकेगा कभी मग्न।
सूना न रहेगा यह मेरा लघु-विश्व कभी जब रहोगे न,
मैं उसके लिये बिछाऊंगी फूलों के रस का मृदुल फेन।
झूले पर उसे झुलाऊंगी दुलरा कर लूंगी वदन चूम,
मेरी छाती से लिपटा इस घाटी में लेगा सहज घूम।
वह आवेग मृदु मलयज-सा लहराता अपने मसृण बाल,
उसके अधरों से फैलेगी नवमधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।
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