|
ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
92 पाठक हैं |
|||||||
जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य की प्रगति दिशा को पल में
अपने मधुर इंगित से बदल सके जो छल में।
वही शक्ति अवलंब मनोहर निज मनु को थी देती,
जो अपने अभिनय से मन को सुख में उलझा लेती।
''श्रद्धे, होगी चंद्रशालिनी यह भव-रजनी भीमा,
तुम बन जाओ इस जीवन के मेरे सुख की सीमा।
लज्जा का आवरण प्राण को ढंक लेता है तम से,
उसे अकिंचन कर देता है अलगाता 'हम तुम' से।
कुचल उठा आनन्द-यही है बाधा, दूर हटाओ,
अपने ही अनुकूल सुखों को मिलने दो मिल जाओ।''
और एक फिर व्याकुल चुंबन रक्त खौलता जिससे,
शीतल प्राण धधक उठते हैं तृषा-तृप्ति के मिस से।
दो काठों की संधि बीच उस निभृत गुफा में अपने,
अग्नि-शिखा बुझ गई, जागने पर जैसे सुख सपने।
0 0 0
|
|||||










