ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
जाग उठी है दारुण-ज्वाला इस अनंत मधुवन में,
कैसे बुझे कौन कह देगा इस नीरव निर्जन में?
यह अनंत अवकाश नीड़-सा जिसका व्यथित बसेरा,
वही वेदना सजग पलक में भरकर अलस सवेरा।
कांप रहे हैं चरण पवन के, विस्तृत नीरवता सी-
धुली जा रही है दिशि-दिशि की नभ में मलिन उदासी।
अंतरतम की प्यास विकलता से लिपटी बढ़ती है,
युग-युग की असफलता का अवलंबन ले चढ़ती है।
विश्व विपुल-आतंक-त्रस्त है अपने ताप विषम-से,
फैल रही है घनी लालिमा अंतर्दाह परम-से।
उद्वेलित है उदधि, लहरियां लोट रहीं व्याकुल सी
चक्रवाल की धुंधली रेखा मानो जाती झुलसी।
सघन धूम कुंडल में कैसी नाच रही यह ज्वाला,
तिमिर फणी पहने है मानो अपने मणि की माला!
जगती-तल का सारा क्रंदन यह विषमयी विषमता,
चुभने वाला अंतरंग छल अति दारुण निर्ममता।
जीवन के वे निष्ठुर दंशन जिनकी आतुर पीड़ा,
कलुष-चक्र सी नाच रही है बन आंखों की क्रीड़ा।.
स्खलन चेतना के कौशल का भूल जिसे कहते हैं,
एक बिंदु, जिसमें विषाद के नद उमड़े रहते हैं।
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