ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
एक विशेष प्रकार कुतूहल होगा श्रद्धा को भी।'
प्रसन्नता से नाच उठा मन 'नूतनता का लोभी।
यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी धधक रही थी ज्वाला,
दारुण दृश्य! रुधिर के छींटे अस्थि-खंड की माला!
वेदी की निर्मम-प्रसन्नता, पशु की कातर वाणी,
मिलकर वातावरण बना था कोई कुत्सित प्राणी।
सोम-पात्र भी भरा, धरा था पुरोडाश भी आगे
श्रद्धा वहां न थी मनु के तब सुप्त भाव सब जागे।
''जिसका था उल्लास निरखना वही अलग जा बैठी,
यह सब क्यों फिर! दृप्त-वासना लगी गरजने ऐंठी।
जिसमें जीवन का संचित सुख सुंदर मूर्त बना है,
हृदय खोलकर कैसे उसको कहूं कि वह अपना है।
वही प्रसन्न नहीं! रहस्य कुछ इसमें सुनिहित होगा,
आज वही पशु मर कर भी क्या सुख में बाधक होगा।
श्रद्धा रूठ गई तो फिर क्या उसे मनाना होगा,
या वह स्वयं मान जायेगी, किस पथ जाना होगा।''
पुरोडाश के साथ सोम का पान लगे मनु करने,
लगे प्राण के रिक्त अंश को मादकता से भरने।
संध्या की धूसर छाया में शैल श्रृंग की रेखा,
अंकित थी दिगंत अंबर में लिए मलिन शशि-लेखा।
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