ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
नारी जीवन का चित्र यही क्या? विकल रंग भी देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो।
रुकती हूं और ठहरती हूं पर सोच-विचार न कर सकती,
पगली-सी कोई अन्तर में बैठी जैसे अनुदिन बकती।
मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूं,
भुजलता फंसा कर नर-तरु से झूले सी झोंके खाती हूं।
इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूं और न फिर कुछ लूं, इतना ही सरल झलकता है।''
''क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प अश्रु-जल-से अपने-
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्त्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अन्तर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।
आंसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से वह संधिपत्र लिखना होगा।''
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