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			 ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
 संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता, 
 फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहां बकता! 
 
 कब तक और अकेले? कह दो हे मेरे जीवन बोलो? 
 किसे सुनाऊं कथा-कहो मत, अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।''
 
 ''तम के सुंदरतम रहस्य, हे कांति-किरण-रंजित तारा! 
 व्यथित विश्व क़े सात्विक शीतल बिंदु, भरे नव रस सारा। 
 
 आतप-तापित जीवन-सुख की शांतिमयी छाया के देश, 
 हे अनंत की गणना! देते तुम कितना मधुमय संदेश! 
 
 आह शून्यते! चुप होने में तू क्यों इतनी चतुर हुई? 
 इंद्रजाल-जननी! रजनी तू क्यों अब इतनी मधुर हुई?''
 
 ''जब कामना सिंधु तट आई ले संध्या का तारा-दीप, 
 फाड़ सुनहली साड़ी उसकी तू हंसती क्यों अरी प्रतीप? 
 
 इस अनंत काले शासन का वह जब उच्छृंखल इतिहास, 
 आंसू औ, तम घोल लिख रही तू सहसा करती मृदु हास। 
 
 विश्व कमल की मृदुल मधुकरी रजनी तू किस कोने से- 
 आती चूम-चूम चल जाती पढ़ी हुई किस टोने से। 
 
 किस दिगंत रेखा में इतनी संचित कर सिसकी-सी सांस, 
 यों समीर मिस हांफ रही-सी चली जा रही किसके पास। 
 
 विकल खिलखिलाती है क्यों तू! इतनी हंसी न व्यर्थ बिखेर, 
 तुहिन कणों, फेनिल लहरों में, मच जावेगी फिर अंधेर। 
 
 घूंघट उठा देख मुसकाती किसे ठिठकती-सी आती। 
 विजन गगन में किसी भूल-सी किसको स्मृति-पथ में लाती। 
 			
						
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