ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,
संहार-बध्य असहाय दांत,
प्राणी विनाश-मुख में अविरल,''
चुपचाप चलें होकर निर्बल!
संघर्ष कर्म का मिथ्या बल
ये शक्ति-चिह्न, ये यज्ञ विफल,
भय की उपासना! प्रणति भ्रांत!
अनुशासन की छाया अशांत!
तिस पर मैंने छीना सुहाग,
हे देवि! तुम्हारा दिव्य-राग,
मैं आता अकिंचन पाती हूं,
अपने को नहीं सुहाती हूं,
मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूं,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूं,
दो क्षमा, न दो अपना विराग,
सोयी चेतनता उठे जाग।''
''है रुद्र-रोष अब तक अशांत'',
श्रद्धा बोली,''बन विषम ध्वांत!
सिर चढ़ी रही! पाया न हृदय,
तू विकल कर रही है अभिनय,
अपनापन चेतन का सुखमय,
खो गया, नहीं आलोक उदय,
सब अपने पथ पर चलें श्रांत
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।''
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