जिनके पास न कोई संस्कृति है, न धर्म है। संस्कृत और सुसंस्कृत और सभ्य
मनुष्यों की बजाय असभ्य और जंगल के आदमी में ज्यादा प्रेम दिखाई पड़ता है;
जिसके पास न कोई विकसित धर्म है, न कोई सभ्यता है, न कोई संस्कृति है। जितना
आदमी सभ्य सुसंस्कृत और तथाकथित धर्मों के प्रभाव में मंदिरों और चर्चों में
प्रार्थना करने लगता है, उतना ही प्रेम से शून्य क्यों होता चला जाता है?
जरूर कुछ कारण हैं। और दो कारणों पर मैं विचार करना चाहता हूं। अगर वे ख्याल
में आ जाएं तो प्रेम के अवरुद्ध स्रोत फूट सकते हैं और प्रेम की गंगा बह सकती
है। वह हर आदमी के भीतर है, उसे कहीं से लाना नहीं है।
प्रेम कोई ऐसी बात नहीं है कि कहीं खोजने जाना है उसे। वह है। वह प्राणों की
प्यास है, प्रत्येक के भीतर, वह प्राणों की सुगंध है, प्रत्येक के भीतर।
लेकिन चारों तरफ परकोटा है उसके और वह प्रकट नहीं हो पाती। सब तरफ पत्थर की
दीवार है और झरने नहीं फूट पाते। तो प्रेम की खोज और प्रेम की साधना कोई
पाजिटिव, कोई विधायक खोज और साधना नहीं है कि हम जाएं और कहीं प्रेम सीख ले।
एक मूर्तिकार एक पत्थर को तोड़ रहा था। कोई देखने गया था कि मूर्ति कैसे बनाई
जाती है। उसने देखा कि मूर्ति तो बिल्कुल नहीं बनाई जा रही है; सिर्फ छैनी और
हथौड़े से पत्थर तोड़ा जा रहा था। उस आदमी ने पूछा ' यह आप क्या कर रहे हैं?
मूर्ति नहीं बनाएंगे, मैं तो मूर्ति का बनना देखने आया हूं। आप तो सिर्फ
पत्थर तोड़ रहे हैं। '
और उस मूर्तिकार ने कहा कि मूर्ति तो पत्थर के भीतर छिपी है, उसे बनाने की
जरूरत नहीं है, सिर्फ उसके ऊपर जो व्यर्थ पत्थर जुड़ा है उसे अलग कर देने की
जरूरत है और मूर्ति प्रकट हो जाए। मूर्ति बनाई नहीं जाती है, मूर्ति सिर्फ
आविष्कृत' होती है, डिस्कवर होती है, अनावृत होती है, उघाड़ी जाती है।
मनुष्य के भीतर प्रेम छिपा है, सिर्फ उघाड़ने की बात है। उसे पैदा करने का
सवाल नहीं है। अनावृत करने की बात है। कुछ है, जो हमने ऊपर से ओढ़ा हुआ है, जो
उसे प्रकट नहीं होने देता?
एक चिकित्सक से जाकर आप पूछें कि स्वास्थ्य क्या है? और दुनिया का कोई
चिकित्सक नहीं बता सकता है कि स्वास्थ्य क्या है। बड़े आश्चर्य की बात है।
स्वास्थ्य पर ही तो सारा चिकित्सा-शाख खड़ा है, सारी मेडिकल साइंस खड़ी हे और
कोई नहीं बता सकता है कि स्वास्थ्य क्या है। लेकिन चिकित्सक से पूछो कि
स्वास्थ्य क्या है, तो वह कहेगा, बीमारियों के बाबत हम बता सकते हैं कि
बीमारियां क्या हैं उनके लक्षण हमें पता हैं एक-एक बीमारी की अलग-अगा परिभाषा
हमें पता है। स्वास्थ्य? स्वास्थ्य का हमें कोई भी पता नही है। इतना हम कह
सकते हैं कि जब कोई बीमारी नहीं होती, तो जो होता है, वह स्वास्थ्य है।
स्वास्थ्य तो मनुष्य के भीतर छिपा है, इसलिए मनुष्य की परिभाषा के बाहर है।
बीमारी बाहर से आती है, इसलिए बाहर से परिभाषा की जा सकती है। स्वास्थ्य भीतर
से आता है, उसकी कोई परिभाषा नहीं की जा सकती। इतना ही हम कह सकते हैं कि
बीमारियों का अभाव स्वास्थ्य है। लेकिन यह स्वास्थ्य की कहां परिभाषा हुई?
स्वास्थ्य के संबंध में तो हमने कुछ भी न कहा। कहा कि बीमारियां नहीं हैं तो
बीमारियों के संबंध में कहा। सच यह है कि स्वास्थ्य पैदा नहीं करना होता है।
या तो छिप जाता है बीमारियों में या बीमारियां हट जाती हैं तो प्रकट हो जाता
है। स्वास्थ्य हममें है।
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