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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


लेकिन अमेरिका में उन्होंने आकड़े निकाले हैं-पैंतीस प्रतिशत लौग होमोसेक्सुअल हैं! और बेल्जियम और स्वीडन. और हालेंड में होमोसेक्सुअल के क्लब हैं सोसाइटीज हैं, अखबार निकलते हैं और वे सरकार से यह दावा करते हैं कि होमोसेक्सुउसनटी के ऊपर से कानून उठा दिया जाना चाहिए? क्योंकि चालीस प्रतिशत लोग जिसको मानते है-तो इतनी बड़ी माइनारिटी के ऊपर हमला है यह आपका। हम तो यह मानते हैं कि होमोसेक्सुअलटी ठीक है, इसलिए हमको हक होना चाहिए। कोई कल्पना नहीं कर सकता कि यह होमोसेक्सुअलटी कैसे पैदा हो गई! सेक्स के बाबत लड़ाई का यह परिणाम है।

जितना सभ्य समाज है, उतनी वेश्याएं हैं! कभी आपने यह सोचा कि वेश्याएं कैसे पैदा हो गईं? किसी आदिवासी गांव में जाकर वेश्या खोज सकते हैं आप? आज भी बस्तर के गांव में वेश्या खोजनी मुश्किल है। और कोई कल्पना में भी मानने को राजी नहीं होता है कि ऐसी स्त्रियां हो सकती हैं जो कि अपनी इज्जत बेचती हों, अपना संभोग बेचती हों। लेकिन सभ्य आदमी जितना सभ्य होता चला गया, उतनी वेश्याएं बढ़ती चली गईं-क्यों?

यह फूलों को खाने की कौशिश शुरू हुई है। और आदमी की जिंदगी में कितने विकृत रूप से सेक्स ने जगह बनाई है, इसका अगर हम हिसाब लगाने चलेंगे तो हैरान रह जाएंगे कि आदमी को क्या हुआ है? इसका जिम्मा किस पर है, किन लोगों पर है?
इसका जिम्मा उन लोगों पर है, जिन्होंने आदमी को-सेक्स को समझना नहीं, लड़ना सिखाया हैँ। जिन्होंने सप्रेशन सिखाया है, जिन्होंने दमन सिखाया है। दमन के कारण सेक्स की शक्ति जगह-जगह से फूटकर गलत रास्तों से बहनी शुरू हो गई है। सारा समाज पीड़ित और रुग्ण हो गया हैँ। इस रुग्ण समाज को अगर बदलना है। तो हमें यह स्वीकार कर लेना होगा कि काम की ऊर्जा है, काम का आकर्षण है!
क्यों हैं काम का आर्कषण?
काम के आकर्षण का जो बुनियादी आधार है, उस आधार को अगर हम पकड़ लें तो मनुष्य को हम काम के जगत से ऊपर उठा सकते हैं और मनुष्य निश्चित काम के जगत से ऊपर उठ जाए, तो ही राम का जगत शुरू होता है। खजुराहों के मंदिर के सामने में खड़ा था। दस-पांच मित्रों को लेकर मे वहां गया था।

खजुराहों के मंदिर के चारों तरफ की दीवाल पर तो मैथुनचित्र है, काम-वासनाओं की मूर्तियां हैं, मेरे मित्र कहने लगे कि मदिर के चारों तरफ यह क्या है?
मैंने उनसे कहा, जिन्होंने यह मंदिर बनाया था, वे बड़े समझदार लोग थे। उनकी मान्यता यह थी कि जीवन को बाहर की परिधि पर काम है! और जो लोग अभी काम से उलझे हैं, उनको मंदिर के भीतर प्रवेश का कोई हक नहीं है।

फिर मैंने अपने मित्रों से कहा, भीतर चले। फिर उन्हें भीतर लेकर गया। वहां तो कोई काम-प्रतिमा न थी, वहां भगवान की मूर्ति थी। वे कहने लगे कि भीतर कोई प्रतिमा नहीं है! मैंने उनसे कहा कि जीवन की बाहर की परिधि पर काम-वासना है! जीवन की बाहर की परिधि, दीवाल पर काम-वासना है। जीवन के भीतर भगवान का मंदिर है। लेकिन जो अभी काम-वासना से उलझे हैं वे भगवान के मंदिर में प्रवेश के अधिकारी नहीं हो सकते। उन्हें अभी बाहर की दीवाल का ही चक्कर लगाना पड़ेगा।

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