हजारों साल से त्रद्रषि, मुनि इंकार कर रहे हैं लेकिन आदमी प्रभावित नही हुआ
मालूम पड़ता है। हजारों साल से वे कह रहे हैं कि मुख मोड़ लो इससे। दूर हट जाओ
इससे। सेक्स की कल्पना और कामना छोड़ दो। चित्त से निकाल डालो ये सारे सपने।
लेकिन आदमी के चित्त से ये सपने निकले नही! निकल भी नहीं सकते हैं इस भांति।
बल्कि मैं तो इतना हैरान हुआ हूं-इतना हैरान हुआ हूं मैं-वेश्याओं में भी
मिला हूं, लेकिन वेश्याओं ने मुझसे सेक्स की बात नहीं की! उन्होंने आत्मा,
परमात्मा के संबंध में पूछताछ की। और मैं साधु-संन्यासियो से भी मिलता हू। वे
जब भी अकेले में मिलते हैं तो सिवाय सेक्स के और किसी बात के संबंध में
पूछताछ नही करते! मैं बहुत हैरान हुआ। मैं हैरान हुआ हूं इस बात को जानकर कि
साधु-संन्यासियों को जो निरंतर इसके विरोध में बोल रहे हैं वे खुद भी चित्त
के तल पर वहीं ग्रसित हैं, वही परेशान है! तो जनता मे आत्मा, परमात्मा की
बातें करते हैं लेकिन भीतर उनके भी समस्या वही है।
होगी भी। स्वाभाविक है, क्योंकि हमने उस समस्या को समझने की भी चेष्टा नहीं
की है। हमने उस ऊर्जा के नियम भी नही जानने चाहे और हमने कभी यह भी नही पूछा
कि मनुष्य का इतना आकर्षण क्यों है? कौन सिखाता है सेक्य आपको?
सारी दुनिया तो सिखाने के विरोध में सारे उपाय करती है। मां-बाप चेष्टा करते
हैं कि बच्चे को पता न चल जाए। शिक्षक चेष्टा करते हैं। धर्म-शास्त्र चेष्टा
करते है। कही कोई स्कूल नहीं, कहीं कोई यूनिवर्सिटी, नहीं। लेकिन आदमी अचानक
एक दिन पाना है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गए हैं! यह कैसे हो जाता
है? बिना सिखाए यह कैसे हो जाता है?
सत्य की शिक्षा दी जतिा है। प्रेम की शिक्षा दी जाती है। उसका तो कोई पता
नहीं चलता। इस सेक्स का इतना प्रबल आकर्षण, इतना नैसर्गिक केद्र क्या हैं?
जरूर इसमें कोई रहस्य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्त भी हो
सकते हैं।
पहली बात तो यह है कि मनुष्य के प्राणों में जो, सैक्स का आकर्षण है, वह
वस्तुतः सेक्स का आकर्षण नहीं हैं। मनुष्य के प्राणो में जो काम वासना है, वह
वस्तुतः काम की वासना नहीं है, इसलिए हर आदमी काम के कृत्य के बाद पछताता है,
दुःखी होता है, पीड़ित होता है। सोचता हैं कि इससे मुक्त हो जाऊं, यह क्या है?
लेकिन शायद आकर्षण कोई दूसरा है। और वह आकर्षण बहुत रिलीजस, बहुत धार्मिक
अर्थ रखता है। वह आकर्षण यह है...कि मनुष्य के सामान्य जीवन मे सिवाय सेक्स
की अनुभूति के वह कभी भी अपने गहरे से गहरे प्राणों मे नहीं उतर पाता है। और
किसी क्षण में कभी गहरे नहीं उतरता है। दुकान करता है, धंधा करता है, यश
कमाता है, पैसे कमाता है, लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे से गहरे
ले जाता है और उसको गहराई मे दो घटनाएं घटती हैं। एक-संभोग के अनुभव में
अहंकार विसर्जित हो जाता है, 'इगोलेसनेस' पैदा हो जाती है। एक क्षण के लिए
अहंकार नहीं रह जाता एक क्षण को यह याद भी नहीं रह जाता कि मैं हूं।
क्या आपको पता है, धर्म के श्रेष्ठतम अनुभव में, 'मैं' बिल्कुल मिट जाता है,
अहंकार बिल्कुल शून्य हो जाता है। सेक्स के अनुभव में, क्षण भर को अहंकार
मिटता है। लगता है कि हूं या न ही। एक क्षण को विलीन हो जाता है 'मेरापन' का
भाव!
दूसरी घटना घटती है : एक क्षण के लिए समय मिट जाता है, 'टाइमलेसनेस' पैदा हो
जाती है। मैं जीसस ने कहा है समाधि के संबंध में, 'देयर शैल बी टाइम नो
लागर'! समाधि का जो अनुभव है, वहां समय नहीं रह जाता है! वह कालातीत है। समय
बिल्कुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्य-शुद्ध वर्तमान रह
जाता है।
सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है? न कोई अतीत रह जाता है, न कोई
भविष्य। समय मिट जाता है, एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है। यह धार्मिक
अनुभूति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व इगोलेसनैस टाइमलेमनेस।
दो तत्त्व हैं, जिसकी वजह सें आदमी सेक्स की तरफ आतुर होता है और पागल होता
है। वह आतुरता स्त्री के शरीर के लिए नहीं है पुरुष की, न पुरुष के शरीर के
लिए सी की है। वह आतुरता शरीर के लिए बिल्कुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और
ही बात के लिए है। वह आतुरता है-अहंकार-शून्यता का अनुभव, समय-शून्यता का
अनुभव।
लेकिन समय-शून्य और अहंकार-शून्य होने के लिए आतुरता क्यों है? क्योंकि जैसे
ही अहंकार मिटता है, आत्मा की झलक उपलब्ध होती है। जैसे ही समय मिटता है,
परमात्मा की झलक उपलब्ध होती है!
एक क्षण की होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए मनुष्य कितनी ही ऊर्जा,
कितनी ही शक्ति खोने को तैयार है! शक्ति खोने के कारण पछताता है बाद में कि
शक्ति क्षीण हुई, शक्ति का अपव्यय हुआ! और उसे पता है कि शक्ति जितनी क्षीण
होती है, मौत उतनी ही करीब आती है।
कुछ पशुओं में तो एक ही संभोग के बाद नर की मुत्यु हो जाती है। कुछ कीड़े तो
ही संभोग कर पाते है और संभोग करते ही करते समाप्त हो जाते है। अफ्रीका में
एक मकड़ा होता है। वह एक ही संभोग कर पाता है और संभोग की हालत में दी मर जाता
तै। इतनी ऊर्जा क्षीण हो जाती है।
मनुष्य को यह अनुभव में आ गया बहुत पहले कि सेक्स का अनुभव शक्ति को क्षीण
करता हैं, जीवन ऊर्जा कम होती है और धीरे-धीरे मौत करीब आती है। पछताता है
आदमी, लेकिन इतना पछताने के बाद फिर पाता हैं कि कुछ घड़िया के बाद, फिर वही
आतुरता है। निश्चित ही इस आतुरता में कुछ और अर्थ है जो समझ लेना जरूरी है।
सेक्स की आतुरता में कोई 'रिलीजस' अनुभव हें, कोई आत्मिक अनुभव हैं।
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