लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

Like this Hindi book 0

संभोग से समाधि की ओर...


लेकिन हमने मनुष्य को भर दिया है, काम के विरोध में। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रेम तो पैदा नहीं हो सका, क्योंकि वह तो आगे का विकास था, काम की स्वीकृति से आता। प्रेम तो विकसित नही हुआ और काम के विरोध में खड़े होने के कारण मनुष्य का चित्त ज्यादा से ज्यादा कामुक और सेक्सुअल होता चला गया। हमारे सारे गीत, हमारी सारी कविताएं, हमारे चित्र, हमारी पेंटिंग्स, हमारे मंदिर, हमारी मूर्तियां सब घूम-फिरकर सेक्स के आसपास केंद्रित हो गयी हैं। हमारा मन ही सेक्स के आसपास केंद्रित हो गया। इस जगत मे कोई भी पशु मनुष्य की भांति सेक्सुअल नहीं है। मनुष्य चौबीस घंटे सेक्युअल हो गया है। उठते-बैठते, सोते-जागते, सेक्स ही सब-कुछ हो गया है। उसके प्राण में एक घाव हो गया है-विरोध के कारण, दुश्मनी के कारण, शत्रुता के कारण। जो जीवन का मूल था उससे मुक्त तो हुआ नही जा सकता था लेकिन उससे लड़ने की चेष्टा में सारा जीवन रुग्ण जरूर हो सकता था, वह रुग्ण हो गया है।

और यह जो मनष्य-जाति इतनी ज्यादा कामुक दिखाई पड़ रही है, इसके पीछे तथाकथित धर्मों और संस्कृति का बुनियादी हाथ है। इसके पीछे बुरे लोगों का नही, सज्जनों और सतों का हाथ है। और जब तक मनुष्य-जाति सज्जनो और संतो के इस अनाचार से मुक्त नही होती है, तब तक प्रेम के विकास की कोई संभावना नहीं है।

मुझे एक घटना याद आती है। एक फकीर अपने घर से निकला था। किसी मित्र के पास मिलने जा रहा था। निकला है कि घोड़े पर उसका चढ़ा हुआ एक बचपन का दोस्त घर आकर सामने खड़ा हो गया है। उसने कहा कि दोस्त! तुम घर पर रुको, बरसों से प्रतीक्षा करता था कि तुम आओगे तो बैठेंगे और बात करेंगे। और दुर्भाग्य से मुझे किसी मित्र से मिलने जाना है। मैं वचन दे चुका हूं तो मैं वहां जाऊंगा। घंटे-भर में जल्दी-से-जल्दी लौट आऊंगा तब तक तुम विश्राम करो।

उसके मित्र ने कहा, मुझे तो चैन नही है, अच्छा होगा कि मैं तुम्हारे साथ ही चला चलूं। लेकिन उसने कहा कि मेरे कपड़े सब गंदे हो गए हैं धूल से रास्ते की। अगर तुम्हारे पास कुछ अच्छा कपड़ा हो, तो दे दो मैं डाल लूं और साथ हो जाऊं।

निश्चित था उस फकीर के पास। किसी सम्राट् ने उसे एक बहुमूल्य कोट, एक पगडी और धोती भैंट की थी। उसने सभाल कर रखी थी कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। वह जरूरत नहीं आई। निकाल कर ले आया खुशी में।
मित्र ने जब पहन लिए, तब उसे थोड़ी ईर्ष्या पैदा हुई। मित्र ने पहनी तो मित्र सम्राट् मालूम होने लगा। बहुमूल्य कोट था पगड़ी थी धोती थी, शानदार जूते थे। और उसके सामने ही वह फकीर बिल्कुल ही नौकर-चाकर, दीन-हीन दिखाई पड़ने लगा। और उसने सोचा कि यह तो बड़ा मुश्किल हुआ, यह तो बड़ा गलत हुआ। जिनके घर मैं ले जाऊंगा, ध्यान इस पर जाएगा, मुझ पर किसी का भी ध्यान जाएगा नहीं। अपने ही कपडे... और आज अपने ही कपड़ों के कारण मैं दीन-हीन हो जाऊंगा। लेकिन बार-बार मन को समझाया कि मैं फकीर हूं-आत्मा-परमात्मा की बात करनेवाला। क्या रखा है कोट में, पगड़ी में, छोड़ो। पहने रहने दो, कितना फर्क पड़ता है। लेकिन जितना समझाने की कोशिश की, कि कोट-पगड़ी में क्या रखा है-कोट-पगड़ी, कोट-पगड़ी ही उसके मन में घूमने लगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book