लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां

कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699
आईएसबीएन :9781613013458

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

72 पाठक हैं

जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचों तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव।। 6।।

इस तन का दीया बना लूं, जिसमें प्राणों की बत्ती हो। और, तेल की जगह तिल-तिल बलता रहे रक्त का एक-एक कण। कितना अच्छा हो कि उस दीये में प्रियतम का मुखड़ा कभी दिखायी दे जाय।

कबीर हँसणां दूरि करि, करि रोवण सो चित्त।
बिन रोयां क्यूं पाइए, प्रेम पियारा मित्त।। 7।।

कबीर कहते हैं- छोड़ो यह हँसना; रोने में ही अपना चित्त लगाओ, वह प्यारा मित्र बिन रोये कैसे किसी को मिल सकता है? (रोने-रोने में अन्तर है। दुनिया की किसी चीज के लिए रोना, जो नहीं मिलती या मिलने पर खो जाती है, और राम के विरह का रोना, जो सुखदायक होता है।)

जौ रोऊं तौ बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ।
मन ही मांहि बिसूरणा, ज्यूं घुंण काठहि खाइ।। 8।।

अगर रोता हूं तो बल घट जाता है, विरह तब कैसे सहन होगा? और हँसता हूं तो मेरे राम रिसा जायंगे। तो न रोते बनता है और न हँसते। मन-ही-मन बिसूरना ही अच्छा, जिससे सबकुछ खोखला हो जाय, जैसे काठ घुन लग जाने से।

हांसी खेलौं हरि मिलै, कोण सहै षरसान।
काम क्रोध त्रिष्णां तजै, तोहि मिलै भगवान।। 9।।

हंसी-खेल में ही हरि से यदि मिलन हो जाय, तो कौन व्यथा की शान पर चढ़ना चाहेगा? भगवान् तो तभी मिलते हैं, जबकि काम, क्रोध और तृष्णा को त्याग दिया जाय।

पूत पियारौ पिता कौं, गौंहनि लागो धाइ।
लोभ-मिठाई हाथि दे, आपण गयो आइ।। 10।।

पिता का प्यारा पुत्र दौड़कर उसके पीछे लग गया। हाथ में लोभ की मिठाई दे दी पिता ने। उस मिठाई में ही रम गया उसका मन। अपने-आपको वह भूल गया, पिता का साथ छूट गया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai