ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
बेसास का अंग
सरजनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ।। 1।।
क्या रोता फिरता है खाने के लिए? अपने सरजनहार को पहचान ले न! दिल के मंदिर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेफिक्र सो जा।
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनाबै लोग।
भांडा घोड़ जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग।। 2।।
अरे, द्वार-द्वार पर क्या चिल्लाता फिरता है कि 'मैं भूखा हूं मैं भूखा हूं?' भांडा गढ़कर जिसने उसका मुंह बनाया, वही उसे भरेगा, रीता नहीं रखेगा।
'कबीर' का तू चिंतबै, का तेरा च्यंत्या होइ।
अणच्यंत्या हरिजी करैं, जौ तोहि च्यंत न होइ।। 3।।
कबीर कहते हैं- क्यों व्यर्थ चिंता कर रहा है? चिंता करने से होगा क्या? जिस बात को तूने कभी सोचा नहीं, जिसकी चिंता नहीं की, उस अ-चिंतित को भी तेरा साईं पूरा कर देगा।
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-लेइ।
साई सूं सनमुख रहै, जहां मांगै तहां देइ।। 4।।
संचय करके संत कभी गठरी नहीं बांधता। उतना ही लेता है, जितने की दरकार पेट को है। साईं! तू तो सामने खड़ा है, जो भी जहां मांगूंगा, वह तू वहीं दे देगा।
मानि महातम प्रेम-रस, गरवातण गुण नेह।
ए सबहीं अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।। 5।।
जब भी किसी ने किसी से कहा कि 'कुछ दे दो', समझ लो कि तब न तो उसका सम्मान रहा, न बड़ाई, न प्रेम- रस, और न गौरव, और न कोई गुण और न स्नेह ही।
मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोइ।
कहै 'कबीर' रघुनाथ सूं, मति रे मंगावै मोहि।। 6।।
कबीर रघुनाथजी से प्रार्थना करता है कि, 'मुझे किसी से कभी कुछ मांगना न पड़े।' क्योंकि मांगना मरण के समान है, बिरला ही कोई इससे बचा है।
'कबीर' सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ।। 7।।
कबीर कहते हैं- सारे संसार में एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर का चक्कर मैं काटता फिरा, बहुत भटका कंधे पर कांवड़ रखकर पूजा की सामग्री के साथ। सारे देवी-देवताओं को देख लिया, ठोक-बजाकर परख लिया, पर हरि को छोड़कर ऐसा कोई नहीं मिला, जिसे मैं अपना कह सकूं।
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