ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
पावकरूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै धूवाँ ह्वै-ह्वै जाइ।। 11।।
मेरा राम तो आग के सदृश है, जो घट-घट में समा रहा है। वह प्रकट तभी होगा, जब कि चित्त उस पर केन्द्रित हो जायगा। चकमक पत्थर की रगड़ बैठ नहीं रही, इससे केवल धुवाँ उठ रहा है। तो आग अब कैसे प्रकटे?
'कबीर' खालिक जागिया, और न जागै कोइ।
कै जगै बिषई विष-भरया, कै दास बंदगी होइ।। 12।।
कबीर कहते हैं- जाग रहा है, तो मेरा वह खालिक ही, दुनिया तो गहरी नींद में सो रही है, कोई भी नहीं जाग रहा। हां, ये दो ही जागते हैं- या तो विषय के जहर में डूबा हुआ कोई, या फिर साईं का बन्दा, जिसकी रात सारी बंदगी करते-करते बीत जाती है।
पुरपाटण सुबस बसा, आनन्द ठांयै ठांइ।
राम-सनेही बाहिरा, उलजंड़ मेरे भाइ।। 13।।
मेरी समझ में वे पुर और वे नगर वीरान ही हैं, जिनमें राम के स्नेही नहीं बस रहे, यद्यपि उनको बड़े सुन्दर ढंग से बनाया और बसाया गया है और जगह-जगह जहां आनन्द-उत्सव हो रहे हैं।
जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मड़हट सारवे, भूत बसै तिन माहि।। 14।।
जिस घर में साधु की पूजा नहीं, और हरि की सेवा नहीं होती, वह घर तो मरघट है, उसमें भूत-ही-भूत रहते हैं।
हैवर गैवर सघन घन, छत्रपती की नारि।
तास पटंतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि।। 15।।
हरि-भक्त की पनिहारिन की बराबरी छत्रधारी की रानी भी नहीं कर सकती। ऐसे राजा की रानी, जो अच्छे-से-अच्छे घोड़ों और हाथियों का स्वामी है, और जिसका खजाना अपार धन-सम्पदा से भरा पड़ा है।
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान।
वा मांग संवारै पीव कौं, या नित उठि सुमिरै राम।। 16।।
रानी को यह नीचा स्थान क्यों दिया गया, और पनिहारिन को इतना ऊंचा स्थान? इसलिए कि रानी तो अपने राजा को रिझाने के लिए मांग संवारती है, सिंगार करती है, और वह पनिहारिन नित्य उठकर अपने राम का सुमिरन।
'कबीर' कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास।। 17।।
कबीर कहते हैं- कुल तो वही श्रेष्ठ है, जिसमें हरि-भक्त जन्म लेता है। जिस कुल में हरि-भक्त नहीं जनमता, वह कुल आक और पलास के समान व्यर्थ है।
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