ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
संगति का अंग
हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूं हेत।
ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत।। 1।।
हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना- ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं।
मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ।
कदली-सीप-भुवंग मुख, एक बूंद तिहं भाइ।। 2।।
मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए उससे कुछ भी फलित होने का नहीं। लोहे की नाव पर चढ़कर कौन पार जा सकता है? वर्षा की बूंद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी- परिणाम अलग-अलग हुए - कपूर बन गया, मोती बना और विष बना।
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ।। 3।।
मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेप से लिपट गये। मिठाई के लालच में वह मर गई, हाथ मलती और सिर पीटती हुई।
ऊंचै कुल क्या जनमियां, जे करनी ऊंच न होइ।
सोवरन कलस सुरै भरया, साधू निंद्या सोइ।। 4।।
ऊंचे कुल में जन्म लेने से क्या होता है, यदि करनी ऊंची न हुई? साधुजन सोने के उस कलश की निन्दा ही करते हैं, जिसमें कि मदिरा भरी हो।
'कबीरा' खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ।। 5।।
कबीर कहते हैं- किले को घेरे हुए खाई का पानी कोई नहीं पीता, कौन पियेगा वह गंदला पानी? पर जब वही पानी गंगा में जाकर मिल जाता है, तब वह गंगोदक बन जाता है, परम पवित्र।
'कबीर' तन पंषो भया, जहां मन तहां उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करै, सौ तैसे फल खाइ ।। 6।।
कबीर कहते हैं-यह तन मानो पक्षी हो गया है, मन इसे चाहे जहां उड़ा ले जाता है। जिसे जैसी भी संगति मिलती है- संग और कुसंग - वह वैसा ही फल भोगता है। (मतलब यह कि मन ही अच्छी और बुरी संगति में ले जाकर वैसे ही फल देता है।)
काजल केरी कोठढ़ी, तैसा यहु संसार।
बलिहारी ता दास की, पैसि र मिकमण हार।। 7।।
यह दुनिया तो काजल की कोठरी है, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी। धन्य है उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता है।
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