ई-पुस्तकें >> कबीरदास की साखियां कबीरदास की साखियांवियोगी हरि
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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।
सांच का अंग
लेखा देणा सोहरा, जे दिल सांचा होइ।
उस चंगे दीवान में, पला न पकड़ै कोइ।। 1।।
दिल तेरा अगर सच्चा है, तो लेना-देना सारा आसान हो जायगा। उलझन तो झूठे हिसाब-किताब में आ पड़ती है, जब साईं के दरबार में पहुंचेगा, तो वहां कोई तेरा पल्ला नहीं पकड़ेगा, क्योंकि सबकुछ तेरा साफ-ही-साफ होगा।
सांच कहूं तो मारिहैं, झूठे जग पतियाइ।
यह जग काली कूकरी, जो छेड़ै तो खाय।। 2।।
सच-सच कह देता हूं तो लोग मारने दौड़ेंगे, दुनिया तो झूठ पर ही विश्वास करती है। लगता है, दुनिया जैसे काली कुतिया है इसे छेड़ दिया, तो यह काट खायगी।
यहु सब झूठी बंदिगी, बरियां पंच निवाज।
सांचै मारै झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज।। 3।।
काजी भाई! तेरी पांच बार की यह नमाज झूठी बन्दगी है, झूठी पढ़-पढ़कर तुम सत्य का गला घोंट रहे हो, और इससे दुनिया की और अपनी भी हानि कर रहे हो।
(क्यों नहीं पाक दिल से सच्ची बन्दगी करते हो?)
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जिस हिरदै में सांच है, ता हिरदै हरि आप।। 4।।
सत्य की तुलना में दूसरा कोई तप नहीं, और झूठ के बराबर दूसरा पाप नहीं। जिसके हृदय में सत्य रम गया, वहां हरि का वास तो सदा रहेगा ही।
प्रेम-प्रीति का चोलना, पहिरि कबीरा नाच।
तन-मन तापर वारहूं, जो कोइ बोलै सांच।। 5।।
प्रेम और प्रीति का ढीला-ढाला कुर्ता पहनकर कबीर मस्ती में नाच रहा है, और उस पर तन और मन को न्यौछावर कर रहा है, जो दिल से सदा सच ही बोलता है।
काजी मुल्ला भ्रंमियां, चल्या दुनीं कै साथ।
दिल थैं दीन बिसारिया, करद लई जव हाथ।। 6।।
ये काजी और मुल्ले तभी दीन के रास्ते से भटक गये और दुनियादारों के साथ-साथ चलने लगे, जब कि इन्होंने जिबह करने के लिए हाथ में छुरी पकड़ ली, दीन के नाम पर।
साई सेती चोरियां, चोरां सेती गुझ।
जाणैंगा रे जीवणा, मार पड़ैगी तुझ।। 7।।
वाह! क्या कहने हैं, साईं से तो तू चोरी और दुराव करता है, और दोस्ती कर ली है चोरों के साथ! जब उस दरबार में तुझपर मार पड़ेगी, तभी तू असलियत को समझ सकेगा।
खूब खांड है खीचड़ी, माहि पड्यां टुक लूण।
पेड़ा रोटी खाइ करि, गला कटावे कूण।। 8।।
क्या ही बढ़िया स्वाद है मेरी इस खिचड़ी का! जरा-सा, बस, नमक डाल लिया है। पेड़े और चुपड़ी - रोटियां खा-खाकर कौन अपना गला कटाये? (पाठान्तर है, 'देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन,' मतलब लगाने में कोई अन्तर नहीं पड़ता।)
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