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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699
आईएसबीएन :9781613013458

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

रस का अंग

'कबीर' भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाइ।। 1।।

कबीर कहते हैं- कलाल की भट्ठी पर बहुत सारे आकर बैठ गये हैं, पर इस मदिरा को एक वही पी सकेगा, जो अपना सिर कलाल को खुशी-खुशी सौंप देगा; नहीं तो पीना हो नहीं सकेगा। (कलाल है सद्गुरु, मदिरा है प्रभु का प्रेम-रस और सिर है अहंकार।)

'कबीर' हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि।। 2।।

कबीर कहते हैं- हरि का प्रेम-रस ऐसा छककर पी लिया कि कोई और रस पीना बाकी नहीं रहा। कुम्हार का बनाया जो घड़ा पक गया, वह दोबारा उसके चाक पर नहीं चढ़ता। (मतलब यह कि सिद्ध हो जाने पर साधक पार कर जाता है जन्म और मरण के चक्र को।)

हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूमत रहै, नाहीं तन की सार।। 3।।

हरि का प्रेम-रस पी लिया, इसकी यही पहचान है कि वह नशा अब उतरने का नहीं, चढ़ा सो चढ़ा। अपनापन खोकर मस्ती में ऐसे घूमना कि शरीर का भी भान न रहे।

सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ।
तिल इक घट मैं संचरै, तौ सब तन कंचन होइ।। 4।।

सभी रसायनों का सेवन कर लिया मैंने, मगर हरि-रस-जैसी कोई और रसायन नहीं पायी। एक तिल भी घट में, शरीर में, यह पहुंच जाय, तो वह सारा ही कंचन में बदल जाता है।

(मैल जल जाता है वासनाओं का, और जीवन अत्यन्त निर्मल हो जाता है।)

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