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कबीरदास की साखियां

वियोगी हरि

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9699
आईएसबीएन :9781613013458

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जीवन के कठिन-से-कठिन रहस्यों को उन्होंने बहुत ही सरल-सुबोध शब्दों में खोलकर रख दिया। उनकी साखियों को आज भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है, मानो कबीर हमारे बीच मौजूद हैं।

'कबीर' छूता राम का, मुतिया मेरा नाउं।
गले राम की जेबड़ी, जित खैंचे तित जाउं ।। 6।।

कबीर कहते हैं- मैं तो राम का कुत्ता हूं और नाम मेरा मुतिया (मोती) है, गले में राम की जंजीर पड़ी हुई है; उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है।

(प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है।)

पतिबरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप।
पतिबरता के रूप पर, बारौं कोटि स्वरूप ।। 7।।

पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली-फटी साड़ी पहने हुए और कुरूप। तो भी उसके रूप पर मैं करोड़ों सुन्दरियों को न्यौछावर कर देता हूं।

पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि की जोत।। 8।।

पतिव्रता मैली ही अच्छी, जिसने सुहाग के नाम पर कांच के कुछ गुरिये पहन रखे हैं। फिर भी अपनी सखी-सहेलियों के बीच वह ऐसी दिख रही है, जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्र की ज्योति जगमगा रही हो।

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