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ई-पुस्तकें >> हनुमान बाहुक

हनुमान बाहुक

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :51
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9697
आईएसबीएन :9781613013496

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सभी कष्टों की पीड़ा से निवारण का मूल मंत्र


। 20 ।

जानत जहान हनुमानको निवाज्यौ जन,
मन अनुमानि, बलि, बोल न बिसारिये ।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ।।

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भांति,
मोदक मरै जो, ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीरके दुलारे रघुबीरजूके,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ।।

भावार्थ - हे हनुमानजी! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मन में विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज! तुलसी कभी सेवा के योग्य था? क्या चूक हुई है अपनी साहिबीको सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्रों भांतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लड्डू देनेसे मरता हो उसको विष से न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवन के दुलारे, रघुनाथजी के प्यारे! भुजाओं की पीडा को शीघ्र ही दूर कीजिये।। 20 ।।

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