आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
यही बात जीव को उच्च मार्ग में लगाने के सम्बन्ध में भी है। यदि धर्म-मार्ग में, सिद्धान्तमय उच्चपथ में प्रगति करनी है, तो उसके लिए ऐसे प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि पानी को ऊपर चढ़ाने के लिये करने होते हैं। सोलह संस्कार नाना प्रकार के धार्मिक कर्म-काण्ड, व्रत, जप, पूजा, अनुष्ठान, तीर्थयात्रा, दान- पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग ऐसे ही प्रयोजन हैं जिसके द्वारा मन को प्रभावित अभ्यस्त और संस्कृत बनाकर दिव्यत्व की ओर - द्विजत्व की ओर - बढ़ाया जाता है। इन सबका उद्देश्य केवल मात्र इतना ही है कि मन पाशविक वृत्तियों से मुड़कर दिव्यत्व की ओर अग्रसर हो, यदि ऐसा करना अपने आप ही सरलतापूर्वक हुआ तो यज्ञोपवीत को व्यर्थ बताने वाले तक को स्वीकार करने में किसी की कुछ आपत्ति न होगी। उस दिशा में यह पृथ्वी ब्रह्मलोक होती और वैसा समय सतयुग कहा जाता। पर आज तो वैसा नहीं है। हमारे मनों की कुटिलता इतनी बढ़ी हुई है कि आध्यात्मिक साधना करने वाले भी बार-बार भ्रष्ट हो जाते हैं तब ऐसी आशा रखना कहाँ तक उचित है कि अपने आप ही सब कुछ ठीक हो जायेगा।
यज्ञोपवीत धारण करना इसलिए आवश्यक है कि इससे एक प्रेरणा नियमित रूप से मिलती है। जिनके जिम्मे संसार के बड़े-बड़े कार्य हैं, जिनका जीवन व्यवस्थित है, वे सबेरे ही अपना कार्यक्रम बनाकर मेज के सामने लटका लेते हैं और उस तख्ती पर बार-बार निगाह डालकर अपने कार्यक्रम को यथोचित बनाते रहते हैं। यदि वह याद दिलाने वाली तख्ती न हो तो उनके कार्यक्रम में गड़बड़ पड़ सकती है। यद्यपि उस तख्ती का स्वत: कोई बड़ा मूल्य नहीं है, पर उसके आधार पर काम करने वाले का अमूल्य समय व्यवस्थित रहता है। इसलिए उसका लाभ असाधारण महत्वपूर्ण है और उस लाभ का श्रेय उस तख्ती को कम नहीं है। जनेऊ ऐसी ही एक तख्ती है, जो हमारे जीवनोद्देश्य और जीवन-क्रम को व्यवस्थित रखने की याद हर घड़ी दिलाती रहती है। जिन उच्च-भावनाओं के साथ वेदमन्त्र के माध्यम से, अग्नि और देवताओं की साक्षी में यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, उससे मनुष्य के सुप्त मानस पर एक विशेष छाप पड़ती है।
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