आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
यज्ञोपवीत सम्बन्धी कुछ नियम
(1) शुद्ध खेत में उत्पन्न हुए कपास को तीन दिन तक धूप में सुखावे। फिर उसे स्वच्छ कर हाथ के चरखे से कातने का कार्य प्रसन्न चित्त, कोमल स्वभाव एवं धार्मिक वृत्ति वाले स्त्री-पुरुषों द्वारा होना चाहिए। क्रोधी, पापी, रोगग्रस्त, गन्दे, शोकातुर या अस्थिर चित्त वाले मनुष्य के हाथ का कता हुआ सूत यज्ञोपवीत में प्रयोग न करना चाहिए।
(2) कपास न मिलने पर गाय की पूँछ के बाल, सन, ऊन, कुश, रेशम आदि का भी यज्ञोपवीत बनाया जा सकता है। पर सबसे उत्तम कपास का ही है।
(3) देवालय, नदी तीर, बगीचा, एकान्त, गुरु-गृह, गौशाला, पाठशाला अथवा अन्य पवित्र स्थान यज्ञोपवीत बनाने के लिए चुनना चाहिए। जहाँ-तहाँ गन्दे, दूषित, अशान्त वातावरण में वह न बनाया जाना चाहिए और न बनाते समय अशुद्ध व्यक्तियों का स्पर्श होना चाहिए।
(4) बनाने वाला स्नान, सन्ध्यावन्दन करने के उपरान्त स्वच्छ वस्त्र धारण करके कार्य आरम्भ करे। जिस दिन यज्ञोपवीत बनाना हो उससे तीन दिन पूर्व से ब्रह्मचारी रहे और नित्य एक सहस्र गायत्री का जप करे। एक समय सात्विक अन्न अथवा फलाहार, दुग्धाहार का आहार किया करे।
(5) चार उँगलियों को बराबर-बराबर करके उन चारों पर तीन तारों के 96 चक्कर गिन लें। गंगाजल, तीर्थजल या किसी अन्य पवित्र जलाशय के जल से उस सूत्र का प्रच्छालन करें, तदुपरान्त तकली की सहायता से इन सम्मिलित तीन तारों को कातलें। कत जाने पर उसे मोड़कर तीन लड़ों में ऐंठ लें। 96 चप्पे गिन लें तथा तकली पर कातते समय मन ही मन गायत्री मन्त्र का जप करें और तीन लड़ ऐंठते समय-(आपोहिष्ठा मयो भुव:) मंत्र का मानसिक जप करें।
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