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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञोपवीत

गायत्री और यज्ञोपवीत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9695
आईएसबीएन :9781613013410

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।


विना यज्ञोपवीतेन तोयं यः पिबते द्विज:।
उपवासेन चैकेन पंचगव्येन शुद्ध्यति।।

यज्ञोपवीत न होने पर द्विज को पानी तक न पीना चाहिए। (यदि इस नियम के भंग होने से वह पतित हो जाय तो) एक उपवास करने पर तथा पंचगव्य पीने पर उसकी शुद्धि होती है।

नाभिव्याहारयेद् ब्रह्म स्वधानि नयनाद्ऋते।
शद्रेण  हि  समस्तावद्यावद्वेदे  न  जायते।।

यज्ञोपवीत होने से पहले बालक को वेद न पढ़ावें। क्योंकि जब तक यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता तब तक ब्राह्मण का बालक भी शूद्र के समान है।

कृतोपनयनस्यैव   व्रतादेशन मिष्यते।
ब्राह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण विधिपूर्वकम्।।

जब बालकों का उपनयन संस्कार हो जावे, तभी शास्त्र की आज्ञानुसार उसका अध्ययन आरम्भ होना चाहिए इससे पूर्व नहीं।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज  उच्यते।
वेदपाठी  भवेद  विप्र  ब्रह्म  जानाति ब्राह्मणः।।

जन्म से सब शूद्र हैं। यज्ञोपवीत होने से द्विज बनते हैं, जो वेदपाठी है, वह विप्र है। जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण है।

ब्राह्मण:  क्षत्रियो  वैश्यस्त्रयो  वर्णा द्विजातयः।
तेषां जन्म द्वितीयं तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनम्।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों द्विज कहलाते हैं क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने से उसका दूसरा जन्म होता है।

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