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कालजयी प्रेम कथा
उस समय अंदाजन तीन बजे थे। नारायण मुखोपाध्यायजी बाहर बैठकर गड़गड़े पर तमाखू पीते थे और एक नौकर हाथ में पंखा लेकर हवा झल रहा था। छात्र के सहित असमय में पंडितजी के आगमन से विस्मित होकर उन्होंने कहा-'क्या गोविंद है?'
गोविंद जाति के कायस्थ थे सो झुककर प्रणाम किया और भूलो को दिखाकर सारी बातें सविस्तार वर्णन की। मुखोपाध्यायजी ने विरक्त होकर कहा-'तब दो देवदास को हाथ से बाहर जाता हुआ देखता हूं।'
'क्या करूं, अब आप ही आज्ञा दें!' 'क्या जानूं? जो लोग पकड़ने गए उनको ढेलों से मार भगाया।' वे दोनों आदमी कुछ क्षण तक चुप रहे। नारायण बाबू ने कहा -'घर आने पर जो कुछ होगा, करूंगा।
गोविंद छात्र का हाथ पकड़कर पाठशाला लौट आए तथा मुख और आँख की भाव भंगिमा से सारी पाठशाला को धमकाकर प्रतिज्ञा की कि यद्यपि देवदास के पिता उस गांव के जमींदार हैं, फिर भी वे उसको अब पाठशाला में नहीं घुसने देगे। उस दिन की छुट्टी समय से कुछ पहले ही हो गयी। जाने के समय लड़कों में अनेकों प्रकार की आलोचनाएं और प्रत्यालोचनाएं होती रहीं।
एक दूने कहा-'उफ! देवा कितना मजबूत है!' दूसरे ने कहा-'भूलो को अच्छा छकाया!'
'उफ! कैसा ताककर ढेला मारता था!' एक दूसरे ने भूलो का पक्ष लेकर कहा-'भूलो इसका बदला लेगा, देखना!' 'हिश्! वह अब पाठशाला में थोड़े ही आएगा जो कोई बदला लेगा।' इसी छोटे दल के एक ओर पार्वती भी अपनी पुस्तक और स्लेट लेकर घर आ रही थी। पास के एक लड़के का हाथ पकड पूछा-'मणि, देवदास को क्या सचमुच ही अब पाठशाला नहीं आने देंगे?'
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