आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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पार्वती ने इस साल तेरहवें वर्ष में पांव रखा है - दादी यह कहती है। इसी उम्र में शारीरिक सौंदर्य अकस्मात मानो कहीं से आकर किशोरी से सर्वांग को छा लेता है। आत्मीय स्वजन सहसा एक दिन चमत्कृत होकर देखते हैं कि उनकी छोटी कन्या अब बड़ी हो गई है। उसके विवाह की तब छटपटी पड़ती है। चक्रवर्ती महाशय के घर में आज कई दिनों से इन्हीं सब बातों की चर्चा हो रही है। माता इसके लिए बड़ी चिंतित हो रही थी, बात-बात में वह पति को सुनाकर कहती कि अब पारो को अधिक दिन तक अविवाहित रखना उचित नहीं है। वे लोग बड़े आदमी नहीं है; उन लोगों को एकमात्र यही भरोसा है कि कन्या अनुपम सुंदरी है। संसार में यदि रूप की प्रतिष्ठा है तो पार्वती के लिए अधिक चिंता न करनी पड़ेगी और भी एक बात है, जिसे यहीं पर कह देना उचित है। चक्रवर्ती परिवार को कन्या के विवाह के लिए आज तक कोई विशेष चिंता नहीं करनी पड़ी है; हां पुत्र के विवाह के लिए अवश्य करनी पड़ती है। कन्या के विवाह में दहेज ग्रहण करते थे, पुत्र के विवाह में दहेज देकर कन्या घर ले आते थे। किंतु नीलकंठ स्वयं इस प्रथा को बहुत घृणा से देखते थे। उनकी यह तनिक भी इच्छा नहीं थी कि कन्या को बेचकर धनोपार्जन करे। पार्वती की मां इस बात को जानती थी; इसी से कन्या के विवाह हो। उसे यह स्वप्न में भी विश्वास नहीं होता था कि मेरी यह आशा दुराशा मात्र है। वह सोचती थी कि देवदास से अनुरोध करने पर कोई रास्ता निकल आएगा। संभवत: यही सोचकर नीलकंठ की माता ने देवदास की मां से इस प्रकार यह चर्चा छेड़ी- 'आहा! बहू, देवदास और मेरी पारो में जैसा स्नेह है, वह ढूंढे से भी कहीं नहीं मिल सकता।'
देवदास की मां ने कहा - 'भला ऐसा क्यों न होगा चाची, वे दोनों भाई-बहिन की तरह पलकर इतने बड़े हुए हैं।'
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