आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
367 पाठक हैं |
कालजयी प्रेम कथा
वृद्ध धर्मदास फूट-फूट कर रोने लगा, कहा-'भैया, अभी तो मां जीती ही है।' इस बात में कितना भाव भरा हुआ था- इसका उन्हीं दोनों की अन्तरात्मा अनुभव कर सकी। देवदास की अवस्था इस समय बड़ी शोचनीय थी। सारे पेट की प्लीहा और फेफड़े ने छेक लिया था, उस पर ज्वर और खांसी का प्रबल प्रकोप था। शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था, केवल ठठरी मात्र बच रही थी। आंखें भीतर की ओर घुस गयी थीं, उनमें एक प्रकार की अस्वाभाविक उज्ज्वलता चमका करती थी। सिर के बाल बड़े रूखे-रूखे हो रहे थे, सम्भवत: चेष्टा करने से गिने भी जा सकते थे। हाथ की उंगलियों को देखने से घृणा उत्पन्न होती थी-एक तो वे नितान्त दुबली-पतली, दूसरे कुत्सित रोगों के दाग से खराब हो गयी थीं। स्टेशन पर आकर धर्मदास ने पूछा-'कहां का टिकट कटाया जायेगा देवता?'
देवदास ने कुछ सोचकर कहा-'चलो पहले घर चलें, फिर देखा जायेगा।'
गाड़ी प्लेटफार्म पर आयी। वे लोग हुगली का टिकट खरीदकर चढ़ गये। धर्मदास देवदास के पास हो रहा। संध्या के कुछ पहले ही देवदास की आंखों से चिनगारियां निकलने लगीं। धीरे-धीरे धुआंधार बुखार चढ़ आया। उन्होंने धर्मदास को बुलाकर कहा-'धर्मदास आज ऐसा मालूम पड़ता है कि घर भी पहुंचना कठिन होगा।'
धर्मदास ने डरकर कहा-'क्यों भैया?'
देवदास ने हंसने की चेष्टा करके कहा-'फिर बुखार चढ़ आया धर्मदास!'
काशी को गाड़ी पार कर गयी तब तक देवदास अचेत थे। पटना के पास आकर जब उन्हें होश हुआ, तो कहा-'तब तो धर्मदास, मां के पास सचमुच नहीं जा सके।'
धर्मदास ने कहा- 'चलो, भैया, पटना में उतरकर हम डाक्टर को दिखा लें।'
उत्तर में देवदास ने कहा-'रहने दो, अब हम लोग घर पर ही चलकर उतरेंगे।'
|