आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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इस तरह एक महीना बीत गया। केवलराम भी ऊब उठा। चन्द्रमुखी को स्वयं पर सन्देह होने लगा कि वे यहां पर नहीं हैं। फिर भी आशा-भरोसा में दिन पर दिन बीतने लगे। कलकत्ता आये हुए डेढ़ महीना हो गया। आज उसके ब्रह्म प्रसन्न हुए।
रात के ग्यारह बज गये थे, हताश मन से वह घर लौट रही थी। इतने में ही देखा, रास्ते के एक ओर दरवाजे के सामने एक आदमी आप-ही-आप कुछ बड़बड़ा रहा है। इस कंठ-स्वर से वह भली-भांति परिचित थी। करोड़ों लोगों के बीच में भी वह उस स्वर को पहचान सकती थी। उस स्थान पर कुछ अन्धकार था, वहीं पर कोई मनुष्य नशे में चूर पड़ा हुआ था। चन्द्रमुखी ने पास जाकर शरीर पर हाथ रखकर पूछा-'तुम कौन हो, जो यहां पर इस तरह पड़े हो?' उस मनुष्य ने जोर से कहा-'सुनो तो सही मेरे मन की बातें, यदि पाऊं मैं अपने स्वामी को।'
चन्द्रमुखी को अब और कुछ सन्देह नहीं रहा, उसने पुकारा-'देवदास!'
देवदास ने उसी भांति कहा-'हूं?'
'यहां क्यों पड़े हो, घर चलोगे?'
'नहीं, अच्छी तरह हूं।'
'थोड़ी शराब पियोगे?'
'हां पिऊंगा'-कहकर एकाएक चन्द्रमुखी का गला जकड़ लिया, कहा-'ऐसी भलाई करने वाले तुम कौन हो भाई?'
चन्द्रमुखी की आंखों से आंसू गिरने लगे। बड़े परिश्रम के साथ गिरते-पड़ते चन्द्रमुखी के कन्धे का सहारा लेकर उठे। कुछ देर मुख की ओर देखने के बाद कहा-'भाई यह बड़ी अच्छी चीज है।'
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