आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
367 पाठक हैं |
कालजयी प्रेम कथा
चन्द्रमुखी का मुख सूख गया, थोड़ा ठहरकर उसने पूछा-'हां मां, तो छोटे बाबू इसी से घर भी नहीं आते?'
बड़ी बहू ने कहा-'आते क्यों नहीं हैं! जब रुपये की जरूरत पड़ती है तो आते हैं। उधार काढते हैं, जमीन बन्धक रखते हैं, फिर चले जाते हैं। अभी दो महीने हुए आये थे, बारह हजार रुपये ले गये। बचने की भी तो उम्मीद नहीं है, शरीर में कई-एक बुरे रोग लग गये हैं! छि:! छि:!'
चन्द्रमुखी सिहर उठी, मलिन मुख से उसने पूछा-'वे कलकत्ता में कहां रहते हैं?'
बड़ी बहू ने सिर ठोंक कर प्रसन्न मुख से कहा-'बड़ी बुरी दशा है! यह क्या कोई जानता है कि कहां, किस होटल में रहते है, किस दोस्त के मकान में पड़े रहते हैं - यह वही जाने या उनका दुर्भाग्य जाने।'
चन्द्रमुखी सहसा उठ खड़ी हई, और बोली-'अब मैं जाती हूं।'
बड़ी बहू ने थोड़ा आश्चर्यित होकर कहा-'जाओगी? अरी ओ बिन्दू...!'
चन्द्रमुखी ने बीच में ही बाधा देकर कहा-'ठहरो मां, मैं खुद ही कचहरी जाती हूं।'
यह कहकर वह धीरे-धीरे चली गयी। घर के बाहर देखा, भैरव आसरा देख रहा है, और बैलगाड़ी एक किनारे खड़ी है। उसी रात को चन्द्रमुखी घर लौट आयी। प्रातःकाल भैरव को फिर बुलाकर कहा-'भैरव, मैं आज कलकत्ता जाऊंगी। तुम तो साथ जा नहीं सकोगे, इसलिए तुम्हारे लड़के को साथ ले जाऊंगी। बोलो, क्या कहते हो?'
|