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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689
आईएसबीएन :9781613014455

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


रमेश मन-ही-मन चकित रह गया। बोला-'ताई जी, फिर इसका कारण क्या है? वीरपुर के किसी मुसलमान के घर में तो इस तरह इतने लड़ाई-झगड़े होते नहीं! उलटे एक-दूसरे की मुसीबत में सभी मिल कर मदद करते हैं। यहाँ की तरह कोई उन पर अत्याचार नहीं करता। तुम्हें मालूम तो है ही कि उस दिन बेचारे द्वारिका पण्डित की अर्थी पड़ी रही, क्योंकि उसका प्रायश्चिवत नहीं हुआ!'

'मालूम है! लेकिन इसकी जड़ में जाति नहीं है। मुसलमान आज भी अपने धर्म को सच्चे रूप में मानते हैं और हम लोग नहीं! सच्चा धर्म आज हमारे देहातों से प्राय: खो गया है; अब उसकी जगह रह गया है थोथा आचार-विचार और कुसंस्कार, जिनको लेकर आज हमारे बीच में गुट बने हुए हैं।'

रमेश ने दीर्घ निःश्वाैस लेते हुए कहा-'क्या इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं?'

'है, इसका उपाय है ज्ञान, जिसे तुमने अपनाया है! तभी तो तुमसे बार-बार कहती हूँ कि अपनी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं भी न जाना!'

रमेश ने इसके उत्तर में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि विश्वेेश्वररी ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा-'शायद तुम यही कहना चाहते हो कि अज्ञानता तो मुसलमानों में भी पाई जाती है! हाँ, पाई जरूर जाती है, लेकिन उनमें धर्म के प्रति अब भी जागरूकता है, वह हर तरह से उनकी रक्षा करते हैं और साथ ही उनका धर्म भी सजीव है! वीरपुर गाँव में जाफर नाम का एक धनी-मानी आदमी है, जिसने अपनी सौतेली माँ को खाने-पीने से तंग कर दिया था, तो उनके समाज में इसी कारण उसे बिरादरी से निकाल दिया। तुम यह बात वहाँ पूछ कर पता कर सकते हो। और हमारे यहाँ इन्हीं गोविंद गांगुली ने अपनी विधवा बड़ी भौजाई को इतना मारा कि बेचारी अधमरी हो गई। पर हमारे समाज की तरफ से क्या मजाल कि उन्हें कोई दण्ड दिया जा सके! वह खुद ही उसके कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं। हमारे यहाँ इन सारे कर्मों को व्यक्तिगत माना गया है, जिसका दण्ड भगवान की अदालत में उसे मिलता है, और दूसरे जन्म में कहीं उसका फल भोगना पड़ता है। हमारे देहाती समाज को उन पर कुछ कहने-सुनने का कोई अधिकार नहीं!'

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