आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश को साँप सूँघ गया हो जैसे। वैसे ही चित्रवत नि:शब्द खड़े वेणी बाबू-'मौसी, अब मैं चला'-कहते हुए खिसक गए।
अंत में रमा ने ही मुँह खोला-'मौसी! तुम अपना काम देखो-कहाँ की बकवास में लग गई।'
मौसी उसे रमा का इशारा समझ और भी तीखे स्वर में बोलीं-'देखो रमा, तुम इस समय चुप रहो! जो बात कहनी है, उसे तत्काल कह देना ही अच्छा होता है, फिर के लिए टालना ठीक नहीं। वेणी को इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? कह तो जाता कि हम लोग तुम्हारा कुछ दिया तो खाते नहीं, जो तुम्हारी चाकरी करने आएँ! यह बात स्वयं ही कह जाता, तब तो जानती कि बड़ा मर्द है। तारिणी मरा, तो गाँव भर का भार उतर गया।'
रमेश को स्वप्न में भी इन बातों के सुनने की आशंका न थी। रसोईघर की कुण्डी झनझनाई, लेकिन किसी ने उसकी ओर कान तक न दिया। मौसी ने मूर्तिवत खड़े रमेश को लक्ष्य कर फिर कहा-'मैं दरबान से तुम्हारा अपमान कराना नहीं चाहती। तुम ब्राह्मण के बेटे हो इसलिए! अब तुम यहाँ से चले जाओ! किसी भले आदमी के घर में घुस कर, इस तरह की बातें करना शोभा नहीं देता। रमा तुम्हारे घर नहीं जाएगी!'
रमेश के मुँह से अनायास ही एक ठंडी साँस निकल गई और इधर-उधर देख, रसोईघर की तरफ आँख उठा कर उन्होंने कहा-'मुझे नहीं मालूम था, रानी! मुझसे भूल हुई, मुझे क्षमा करना! तुमने न आने का निश्चय ही कर लिया है, तो फिर मैं अब क्या कहूँ। और रमेश धीरे-धीरे वहाँ से चला गया। किसी ने उसका कोई जवाब न दिया। वह यह भी न जान सका कि रमा रसोईघर में किवाड़ की आड़ में खड़ी, टकटकी बाँधे, अवाक, उसी के मुख की तरफ देख रही थी।
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