आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
बीच में ही क्षांती मौसी चीख पड़ी-'मरे तुम्हारी लड़की, उसी को कंधा देना! मेरी लड़की की चिंता मत करो। अपने सीने पर हाथ रखो और बताओ, कि वे जो उस भण्डार में बैठी-बैठी पान लगा रही है तुम्हारी छोटी मौसी, वे परसाल किसलिए डेढ़-एक महीने के लिए काशीवास करने गई थीं जो वहाँ से पीला-जर्द हल्दी का-सा रंग लेकर लौटी थीं? ये तो हैं बड़े घरों की बातें! मुझे तुम सबकी नस-नस मालूम है। कहने बैठूँगी तो सारी पोल खुल जाएगी। मैंने भी दुनिया देखी है!'
गोविंद गुस्से से दाँत किटकिटा कर बोले-'ठहर तो बदजात !'
पर वह बदजात तो और भी एक-दो कदम आगे बढ़ कर, सीना तान कर, तुनक कर बोली-'तेरी क्या हिम्मत, जो मुझ पर हाथ उठाए! किसी के भरोसे न रहना! मैं हूँ क्षांती ब्रह्मचारिणी, मुझसे रार बढ़ाओगे, तो अपना ही कोढ़ उघड़वाओगे। मेरी बेटी चौके में गई न गई, वैसे ही हालदार उसका अपमान करने लगे! क्या उनकी समधिन की बात जुलाहे के संग नहीं उड़ी थी? बस या और कुछ सुनने का इरादा है?'
रमेश तो हतबुद्धि-सा खड़ा रहा। भैरव ने आगे बढ़ कर क्षांती का हाथ पकड़ कर कहा-'बस रहने दो मौसी, इतना ही बहुत है! चलो मेरे उस कमरे में बैठना, उठो सुकमारी बेटी!'
पराण हालदार ने अपना दुपट्टा कंधो पर सँभालते हुए उठ कर कहा-'गोविंद, मैं एलानिया कह रहा हूँ कि जब तक इसको इस घर से निकाल कर बाहर नहीं किया जाता, मैं यहाँ पानी भी नहीं पीने का! और देख कालीचरण, तुझे अगर अपने मामा का जरा भी लिहाज है-तो तुम चलो उठ कर! यदि पहले से ही जानता कि यहाँ इन जैसे लोग भी जमा होंगे, तो कभी अपना धर्म नष्ट करने न आता। वेणी ने पहले ही टोका था कि मामा, वहाँ जाना ठीक नहीं! उठ, चल, आ कालीचरण!'
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