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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमा की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चली, मंद प्रकाश होने के कारण उस पर रमेश की निगाह न पड़ सकी।
रमा ने फिर एक बार रमेश को प्रणाम किया और रमेश वहाँ से चला गया। रास्ते में उसे अपना सारा उत्साह तिरोहित-सा होता प्रतीत हुआ।
दूसरे दिन सबेरे रमेश जब विश्वेउश्वहरी के घर, उनके अंतिम दर्शन करने को गया, तो वे उस समय जाने को पालकी में बैठ रही थीं। रमेश ने आँखों में आँसू भर कर पास आ कर कहा-'हमारे किस अपराध के दण्ड में, हम सबको इतनी जल्दी छोड़ कर जा रही हो, ताई जी?'
अपना दाहिना हाथ रमेश के सिर पर रखते हुए उन्होंने कहा-'अपराध की बात मत पूछ, बेटा! उसे कहने लगूँगी, तो वह खतम न होगी। यहाँ मरने पर, वेणी के हाथ से अपना अंतिम संस्कार मैं नहीं कराना चाहती। उसके हाथ से मेरी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। इस लोक का जीवन तो व्यथा में मन जलते-जलते बीता ही है बेटा! परलोक में शांति से जीवन बिताने की साध में यहाँ से भाग कर जा रही हूँ मैं!'
रमेश स्वब्ध खड़ा रहा। विश्वेमश्वारी के हृदय की व्यथा को रमेश ने आज से पहले कभी इतना स्पष्ट रूप से न जाना था और न समझा ही था। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद पूछा-'क्या रमा भी जा रही है, ताई जी?'
एक दीर्घ नि:श्वातस छोड़ कर विश्वेमश्व्री ने उत्तर दिया-'अब उसके लिए संसार में भगवान के चरणों के सिवा कोई स्थान नहीं रहा है, तभी भगवान के चरणों में इसे ले जा रही हूँ। कहा नहीं जा सकता कि वहाँ पहुँचने पर वह जीवित भी रहेगी या नहीं! यदि जीवित रह सकी, तो उससे मैं यही अनुरोध करूँगी कि वह शेष जीवन यही जानने का प्रयास करे कि भगवान ने क्यों तो उसे इतना रूपवान और गुणवान बना कर संसार में भेजा और फिर क्यों उसे संसार से अपने हृदय पर व्यथा का भार लेकर, उसमें जलने को दूर फेंक दिया? इसमें भगवान का कोई अदृश्य अभिप्राय है या फिर हमारे समाज की ही विडंबना इसका कारण है? बेटा रमेश, वह तो संसार में सबसे बड़ी दुखिया है!'
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