जीवनी/आत्मकथा >> क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजादजगन्नाथ मिश्रा
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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की सरल जीवनी
नई नीति
प्राची में उषा की सप्तरंगी लालिमा छा गई। चिड़िया आनन्द में चहचहाने लगीं। धीरे-धीरे अरुणोदय हुआ, प्रभात की सुनहरी किरणें गंगा-यमुना के संगम पर बिखर गईं। प्रकृति का कण-कण निखर उठा। चन्द्रशेखर आजाद गंगा-स्नान व पूजा-पाठ से निवृत्त होकर उस पार जमुना के किनारे टहल रहे थे। हवा में तीखी ठंड थी फिर भी वह बाल-ब्रह्मचारी नंगे बदन था। मानो उसकी उभरी हुई मांस-पेशियों पर ब्रह्मचर्य के तेज से सर्दी, गर्मी व बरसात, किसी भी ऋतु का प्रभाव न हो पाता था।
उस समय उनके मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार उठ रहे थे। उनका मन अशान्त था। आज उन्हें हर वस्तु उदास और पराई-सी दिखाई पड़ रही थी। वह सोचने लगे, ''भगतसिंह आदि साथियों के पकड़े जाने के वाद मेरा मन कहीं नहीं लग रहा है। किन्तु विवेक कहता है कि अब तो तेरे ऊपर मातृभूमि की सेवा का भार और भी अधिक आ पड़ा है। भारत में वीरों की कमी नहीं है। केवल उनकी सुप्त भावनाओं को जागृत करके मार्ग-प्रदर्शन करने की आबश्यकता है।''
''अब मैं अकेला रह गया हूं। दल का संगठन फिर नये सिरे से करना पड़ेगा। इसके लिए पर्याप्त और धन चाहिये। यद्यपि अपने साथियों के विश्वास के अनुसार, मुझे भी अपने आप पर भरोसा है कि मैं अकेला होते हुए भी इस काम को पूरा कर ले जाऊंगा। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि अव मुझे श्री रामप्रसाद बिस्मल, भगतसिंह और राजगुरु सरीखे वीर साथी कभी नहीं मिल सकेंगे और न दल का कार्य ही उतने उत्साह से हो अपने पिछले अनुभवों के आधार पर बुद्धि यही कहती है कि अभी हमारे देश में सशस्त्र क्रान्ति का उचित समय नहीं आया है। इसके लिए जन-जन में जागृति और सैनिकों में भी विद्रोह की भावना होनी चाहिए। बिना सैनिक विद्रोह के, जनता के मुट्ठी भर लोगों को सशस्त्र क्रान्ति सफलता का फल देनेवाली नहीं हो सकती।''
''इसमें कोई संदेह नहीं, समय और परिस्थिति को देखते हुए, गांधीजी का मार्ग ही सरल और उचित है। किन्तु मेरे लिए क्या? मैं इसे अपनाना भी चाहूं तो अपना नहीं सकता। जब तक कोई व्यक्ति हम क्रान्तिकारियों और सरकार के बीच में पड़कर इस तरह का कोई समझौता नहीं करा देता कि सरकार हमारे पिछले कार्यों के लिए हमें कोई दण्ड नहीं देगी तब तक हम अपने मार्ग को छोड़ ही कैसे सकते हैं?''
कांग्रेस और उनके नेता, मेरे और मेरे साथियों के लिए कुछ करना नहीं चाहते। इसलिए हमें विवश होकर अपने इसी मार्ग पर ही चलना है।
अब की बार दल का संगठन करके हमें अपनी नीति बदलनी होगी। हम सरकार से सीधी टक्कर लेनेवाला कोई काम नहीं करेंगे। अपने दल के अधिक से अधिक व्यक्तियों को सेना में भर्ती करायेंगे। वे लोग चुपके-चुपके अन्य सैनिकों को भी अपने पक्ष में करके विद्रोह के लिए तैयार रहेंगे। फिर उचित समय देखकर किसी एक दिन में ही ब्रिटिश सरकार का तख्ता उलट दिया जायेगा।
फिलहाल इस कार्य के लिए दक्षिण भारत ही अधिक उपयुक्त है। फिर धीरे-धीरे समस्त भारत को अपना क्षेत्र बना लिया जायेगा। देश के हर भाग में हमारा दल फैल जायेगा।
मुझे शीघ्र ही यहां से चल देना चाहिए। शायद सेठ भी सब नहीं तो कुछ रुपया अवश्य ही दे देगा। मैं आज रात की गाड़ी से ही बम्बई को चत दूंगा।
उन्होंने अपनी कलाई की घड़ी पर दृष्टि डाली, ''अब आठ बजकर दस मिनट हो रहे हैं। अब तो तिवारी आने वाला होगा। परसों उसने मुझसे यहीं मिलने का वचन दिया था।''
''मैं जानता हूं, तिवारी मेरे किसी विशेष मतलव का आदमी नहीं है किन्तु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे किसी न किसी रूप में मनुष्य के सहारे की आवश्यकता रहती ही है। फिर उसे किसी न किसी का विश्वास भी करना ही पड़ता है। मेरा भी कोई संगी-साथी नहीं रहा, मैंने भी विवश होकर ही इसको साथ लिया है। और कुछ नहीं तो कम से कम दो-चार बात करके ही कुछ देर मन बहल जाता है। अगर आज रुपए मिल गए तो इसका भी साथ छूट जाएगा। अब तो नए-नए सच्चे देश-सेवक ही साथी वनाए जायेंगे।''
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