आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
मनुष्य की मानसिक शक्ति.... यानी, उसकी कल्पना-शक्ति! यह कल्पना- शक्ति मनुष्य की सबसे बड़ी विलक्षणता है। जैसा कि इस कथा में कहा जा चुका है, मनुष्य ने ईश्वर के अस्तित्व की कल्पना की, इसीलिए ईश्वर है। ईश्वर के होने की कल्पना, सिवा मनुष्य के, अन्य किसी प्राणी के बस की बात नहीं है। इसीलिए, 'ईश्वर कहाँ है?' इस प्रश्न का उत्तर यदि कोई है, तो यही है कि ईश्वर मनुष्य की कल्पना में है, मनुष्य की कल्पना में ही उसका निवास है। इस आधार पर अनुमान लग सकता है कि कल्पना-शक्ति मनुष्य की कितनी बड़ी विलक्षणता है। ईश्वर और धर्म, दोनों मनुष्य की कल्पना-शक्ति की उपलब्धियाँ हैं। मनुष्य की प्रत्येक उपलब्धि सबसे पहले उसकी कल्पना में साकार हुई और उसके बाद ही भौतिक संसार में आई। हवाई जहाज इस भौतिक संसार में आया, उससे पहले न जाने कितने वर्ष वह केवल मनुष्य की कल्पना में रहा। उसी कल्पना को जब मनुष्य के ज्ञान का सहारा मिला, तब हवाई जहाज सत्य हो गया। यानी सत्य के आगे ज्ञान है और ज्ञान के भी आगे कल्पना चलती है।
जो अपनी कल्पना-शक्ति को दिशा नहीं दे सकता, वह कल्पना-योगी नहीं है। दिशाहीन कल्पना-शक्ति हमेशा उत्पात का कारण बनती है। कल्पना-योगी अपनी कल्पना को मानव-कल्याण की दिशा में साधता है। वह निरन्तर कल्पना करता रहता है कि किन-किन विचारों एवं उपायों से वह अधिकतम मानव बन सकता है। कल्पना-योगी की असीमित कल्पना-शक्ति जब मानवता के अन्वेषण एवं विकास के कार्य में जुटती है, तो समाज में क्रान्ति आने लगती है। इसी क्रान्ति के लिए ईसा या गाँधी ने अपना जीवन दिया।
यदि हम सब कल्पना-योगी बन जायें, अपने-अपने स्तर पर यदि हम सभी केवल एक कल्पना करते रहें कि किस प्रकार हम अधिक-से-अधिक मानव बन सकते है, तो समाज का रूप क्या हो? बताना आवश्यक नहीं।
योग यानी क्या? शरीर को किसी कठिन मुद्रा में मोड़कर बैठ जाना? मोटा अर्थ तो यही है, किन्तु कल्पना-योगी का योग शरीर-मुद्रा का योग नहीं है। यह तो जीवन-शैली का योग है। शरीर-मुद्रा के नाम पर इसमें केवल इतना है कि आप केवल प्रारम्भिक दिनों में किसी एकान्त-स्थली में, अधिकतम निढाल होकर बैठ या लेट जायें और सोचना शुरू करें, कल्पना करना शुरू करें, कि आप कहाँ-कहाँ अपने स्वार्थ के जंजाल में फँसे हुए हैं। पहले तो अपने स्वार्थों को पहचानने के लिए सोचें। फिर उन स्वार्थों से मुक्त होने के उपायों के लिए सोचें। प्रारम्भिक दिनों के बाद आप ऐसे विचार के इतने अभ्यस्त हो जायेंगे कि उसके लिए किसी एकान्त स्थली में जाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। लोकल ट्रेन में, बसों में, भयंकर शोरयुक्त फैक्ट्री में किसी भी समय और किसी भी स्थान पर आपकी जीवन-शैली ही बन जायेगी कि अपने स्वार्थों से छूटे रहने के लिए आपको जरा भी. अलग से, सोचने की जरूरत ही नहीं रहेगी। आप अपने-आप अपने स्वार्थों से मुक्त बने रहेंगे-बिना सोचे। मानव की विलक्षण कल्पना-शक्ति का इससे बेहतर उपयोग दूसरा कोई नहीं।
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