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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

न जाने कौन-सी शक्ति मेरी चेतना पर हावी होना चाहती थी। यह अनुभव अर्द्ध-मूर्च्छा जैसा था। मन की गहराइयों में मैं अपने आपको बार-बार जगा रहा था। समझना मुश्किल था, वैसा अनुभव एक सच्चाई थी या केवल भ्रम? यह महायोगिनी जी का प्रभाव है या मेरे मन की आज्ञाकारिता? मेरे मानस की कमजोरी? क्यों ऐसा लगता है, जैसे मैं किसी की शरण में जा रहा हूँ? ऐसे प्रभाव के पीछे महायोगिनी की आन्तरिक अलौकिकता है या केवल बाह्य सौन्दर्य? मुझे उत्तर नहीं मिल रहे थे।

बौखलाहट के बावजूद, उस शान्त वातावरण में मेरी साँसें नियमितता से चल रही थीं। किसी गहन एवं आन्तरिक मानसिक शान्ति में मैं डूब-उतरा रहा था। शारीरिक स्तर पर भी मुझे परम शान्ति महसूस हो रही थी।

कुछ समय बाद महायोगिनी की उन निर्जीव-सी लगती आँखों में चेतना आने लगी। सूख चुकी पुतलियों पर, सहसा भीगी पर्त-सी आकर चमकने लगी। मैंने सूक्ष्म झुरझुरी महसूस की। महायोगिनी की कौन-सी आँखें अधिक प्रभावशाली थीं? क्या वे, जो निर्जीव लग रही थी? या वे, जो सहसा भीनी-भीनी, बडी-बडी, काली-कजरारी हो उठी थीं?

महायोगिनी की आँखों में चमक आते ही सभा की मन्त्र-मुग्धता और शान्ति सहसा टूट गई। सभी व्यक्ति जरा कसमसा उठे। मैंने घड़ी में देखा। बीस मिनट बीत चुके थे।

''कहिए, मोहनभाई कैसे हैं?'' महायोगिनी के गले में अविश्वसनीय माधुर्य था, ''आपका बच्चा ठीक है न?''

मैं सोचे बिना न रह सका, माधुर्य की अधिकता तो अनुशासन को आहत करती है। महायोगिनी जी में इतने माधुर्य के बावजूद, आसपास के प्रत्येक सजीव- निर्जीव को, इतने चुस्त अनुशासन में रखने की क्षमता कैसे है?''

जिसे उन्होंने 'मोहनभाई' कहकर सम्बोधित किया था, उसने बैठे-बैठे ही, किन्तु जरा आगे सरकते हुए, अत्यन्त नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा, ''आपकी कृपा से सब कुशल-मंगल है, बहन जी!'

अम्बिकादेवी ने छत की ओर संकेत किया और मुस्करा कर कहा, ''कृपा तो ईश्वर की है। हम पामर मनुष्यों के बूते में है ही क्या?''

इसी तरह के संवाद अम्बिकादेवी और श्रद्धालुओं के बीच चलते रहे। किसी को कोई व्याधि थी, किसी को कोई दुःख था, किसी को कोई आशंका या बाधा थी। अम्बिकादेवी के पास सभी के दुःख-दर्द का कोई-न-कोई उपाय अवश्य था। महायोगिनी जी ने मेरे सिन्धी मित्र से पूछा, क्यों साई, बहुत दिनों बाद पधारे?''

'धन्धे में फँसा रहता हूँ बहन जी! दुनिया के चक्कर ही ऐसे हैं कि....' सिन्धी ने बहुत नम्रता से कहा।

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