आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
सत्रह
गुरुदेव घायल
मेरे कानों में फिर से वही शोर होने लगा, जैसे सम्पूर्ण विश्व की आवाजें एक साथ सुन रहा होऊँ। गुरुदेव और दीदी, दोनों के ही स्वर, वीभत्स रोदन बनकर मेरे कानों में प्रवेश करने लगे। वह लाश भी मेरे कानों में मुँह लगा-लगाकर रोने लगी। पिशाचों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी ऐसे चीखने, रोने, हँसने और नाचने लगी, जैसे मेरे कानों के परदे फाड़े बिना उसे चैन मिलने वाला न हो।
अकस्मात् मुझे लगा, जैसे सम्पूर्ण धरती की सारी चीखें, सम्पूर्ण आकाश के सारे स्वर, सभी प्रकार की मेघगर्जनाएँ और प्रचण्डता से फुँकती वायु का सम्पूर्ण चीत्कार-सभी कुछ सुनने की क्षमता मुझे मिल गई है!
आवाज की तीव्रता और गति बढने लगी थी। मैंने दोनों कानों पर हथेलियाँ दबा दीं।
अगले ही क्षण सब आवाजें शान्त हो गई।
अब तो मन्त्रोच्चार भी सुनाई नहीं दे रहे थे।
उस अलौकिक शान्ति का आनन्द मैंने न जाने कितनी देर तक लिया। स्वर-विहीन संसार में मानो मैं अकेला ही था।
शान्त...... शान्त..... सभी कुछ शान्त.........।
अपने ही मन्त्रोच्चार को मैं सुन नहीं पा रहा था।
आँखें खोलकर मैंने देखने का प्रयास किया। अनेक पलों के बाद ही चैतन्यानन्द जी और अम्बिका दीदी की आकृतियाँ स्पष्ट हुई। लाश भी सामने ज्योंकी त्यों पड़ी थी। लाश का जमे हुए सूखे रक्त से सना चेहरा, जैसे कि मुझे कुछ बताना चाह रहा था। लाश की ओर मैं देखता रह गया।
मैंने गुरु चैतन्यानन्द जी की आवाज सुनी। आश्चर्य यह था कि उनकी आवाज मैं अपने कानों में नहीं, बल्कि हृदय की गहराइयों में सुन रहा था। उनकी वाणी का उद्गम स्थान मानो मेरे शरीर के भीतर ही था।
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