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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

''इतनी अलौकिक मानसिक शक्ति होने के बावजूद.... गुरुदेव का मन इतना अशान्त क्यों हैं? '' मैंने पूछा।

''क्योंकि उन्हें शिष्यों ने धोखा दिया है।''

''कैसे? ''

दीदी ने बताया- ''निर्जीव लगती खोपडी को अधर में उठा देने जैसी शक्तियाँ गुरुदेव ने कई शिष्यों को दी हैं। तब गुरुदेव ने सोचा भी नहीं था कि वे शिष्य शहरों गॉवों में घुसकर, जनता को चमत्कार दिखाकर, डराकर, धमकाकर, रुपये ऐंठना शुरू कर देंगे। लेकिन ऐसा ही हुआ। बार-बार हुआ। गुरुदेव का दिल टूट गया। शिष्यों को चमत्कार की शक्ति इसलिए दी गई थी कि वे अपना आत्म-बल बढायें और उसके सहारे दूसरों का भी आत्म-बल बढ़ा दें। हुआ ठीक उल्टा। शिष्यों ने भय और अंध-विश्वास का विस्तार करना शुरू कर दिया। इसी की पीडा गुरुदेव को सता रही है। आकाश से फूलों की बारिश करना, हवा में से सिन्दूर पकड-पकड कर बरसाना, खोपडी को अधर में उठाना और नचाना, अदृश्य में से मूर्तियाँ पैदा करना ये सब मन की ही शक्ति के चमत्कार हैं। चमत्कार भी ये बडे मामूली हैं। इसीलिए भ्रष्ट आचरण के बावजूद ऐसे चमत्कार दिखाने की शक्ति शिष्यों में बरकरार है। अन्यथा.... जो चमत्कार बहुत गहरे होते हैं, वे नाजुक भी बहुत होते हैं। साधक यदि भ्रष्ट आचरण करे, तो नाजुक चमत्कार साधक का साथ तुरन्त छोड देते हैं। भ्रष्ट साधक का मन ही इतना गरीब हो जाता है कि उन चमत्कारों की शक्ति को धारण नहीं कर पाता। जनता नहीं जानती कि जिन चमत्कारों से उसे वशीभूत किया जा रहा है, वे कितने मामूली हैं।''

'दीदी।' मैंने कहा, ''चमत्कार मामूली हो, चाहे गैर-मामूली, क्या उनके कारण लोगों की अन्ध-श्रद्धा ही नहीं बढ़ती? क्या अन्ध-विश्वासों का ही विस्तार नहीं होता? चमत्कारों से, चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों, मनुष्य का स्वाभिमान घटता है। वह हालात की गुलामी करने लगता है। इसलिए, मेरे अनुसार तो, किसी भी श्रेणी के चमत्कारों का प्रदर्शन, आम जनता के सामने, होना ही नहीं चाहिए। आपको मेरी बातों में विरोधाभास लग रहा होगा, क्योंकि स्वयं मैं यही चमत्कारपूर्ण विद्याएँ सीखने आया हूँ किन्तु ये सिद्धियाँ तो मेरे व्यक्तिगत ज्ञान एवं उपयोग के लिए होगी - न कि जनता के सामने प्रदर्शन के लिए। मैं स्वयं के मन की शक्ति से परिचित होना चाहता हूँ। उस शक्ति से मैं कुछेक निजी आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहता हूँ।''

''किन्तु आपने तो अपनी सबसे बडी आकांक्षा की आहुति दे दी है।'' दीदी की आँखें मेरी ओर उठीं।

मैंने स्पष्ट किया, ''मेरी निजी आकांक्षाएँ भी स्व-केन्द्रित नहीं हैं। मैं केवल सामाजिक अन्यायों के विरुद्ध खड़ा होना चाहता हूँ।''

''हुँ...। '' दीदी सोच में पड़ गई।

मैंने कहा, ''मुझे कर्ण-पिशाचिनी मन्त्र की दीक्षा दीजिए, दीदी।''

० ० ०

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