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चमत्कारिक दिव्य संदेश

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9682
आईएसबीएन :9781613014530

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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।

अग्नि दिव्य प्रमाण- अग्नि का दिव्य ग्रहण करने वाले के हाथों में धान मसलकर, हाथों के काले तिल आदि चिन्हों को देखकर उन्हें महावर आदि से रंग दिया जाता था। फिर उसके हाथों की अंजलि में पीपल के सात पत्ते रखे जाते थे। हाथ सहित उन पत्तों को धागे से आवेष्टित कर दिया जाता था इसके बाद दिव्य ग्रहण करने वाला अग्नि की प्रार्थना करता था - 'अग्निदेव। आप सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के अन्तःकरण में विचरते हैं। आप सबको पवित्र करने वाले और सब कुछ जानने वाले हैं। आप साक्षी की भाँति मेरे पुण्य और पाप का निरीक्षण करके सत्य को प्रकट कीजिये।

शपथ ग्रहण करने वाले के ऐसा कहने पर उसके दोनों हाथों में पचास पलका जलता हुआ लौह पिण्ड रख दिया जाता था दिव्य ग्रहण करने वाला मनुष्य उसे लेकर धीरे-धीरे सात मण्डलों तक चलता था। मण्डल की लम्बाई और चौड़ाई सोलह अंगुल की होती थी तथा एक मण्डल से दूसरे मण्डल की दूरी भी उतनी ही होती थी तदनन्तर शपथ करने वाला अग्नि पिण्ड को गिराकर हाथों में पुन: धान मलता था यदि हाथ न जले हों तो शपथ करने वाला मनुष्य शुद्ध माना जाता था। यदि छह लौह पिण्ड बीच में ही गिर पड़े या कोई संदेह हो तो शपथकर्ता को पूर्ववत् लौह पिण्ड लेकर चलना पड़ता था।

जल दिव्य प्रमाण- जल का दिव्य ग्रहण करने वाले को निम्नांकित रूप से वरुण देव की प्रार्थना करनी होती थी। वरुण! आप पवित्रों में भी पवित्र हैं और सबको पवित्र करने वाले हैं। मैं शुद्धि के योग्य हूँ। मेरी शुद्धि कीजिये। सत्य के बल से मेरी रक्षा कीजिये। इस प्रार्थना मंत्र से जल को अभिमन्त्रित करके वह मनुष्य नाभिपर्यन्त जल मे खड़े हुए पुरुष की जाँघ पकड़कर जल में डुबकी लगाता था। उसी समय कोई व्यक्ति बाण चलाता था जब तक एक वेगवान मनुष्य उस छूटे हुए बाण को लेकर लौट नहीं आता था तब तक यदि शपथकर्ता जल में डूबा रहे तो वह शुद्ध होता था।

विष दिव्य प्रमाण- विष का दिव्य प्रमाण ग्रहण करने वाला इस प्रकार विष की प्रार्थना करता था-- विष! तुम ब्रह्मा के पुत्र हो और सत्य धर्म में अधिष्ठाता हो, इस कलंक से मेरी रक्षा एवं सत्य के प्रभाव से मेरे लिए अमृत रूप हो जाओ।' ऐसा कहकर शपथकर्ता हिमालय पर उत्पन्न शार्क विष का भक्षण करता था। यदि विष बिना वेग के पच जाता था, तो न्यायाधिकारी उसकी शुद्धि का निर्देश करता था।

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