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आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9677
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आईएसबीएन :9781613013113 |
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
द्वैतवादी कहते हैं - ''अगर कोई सुई मिट्टी से ढँकी हो, तो उस पर चुम्बक का प्रभाव न होगा; पर ज्यों ही उस पर से मिट्टी क्रो हटा दिया जायगा, त्यों ही वह चुम्बक की ओर आकृष्ट हो जायगी! ईश्वर चुम्बक है और मनुष्य की आत्मा सुई; पापरूपी मल इसको ढँके रहता है। जैसे ही कोई आत्मा इस मल से रहित हो जाती है, वैसे ही प्राकृतिक आकर्षण से वह ईश्वर के पास चली आती है; और सनातन रूप से उसके साथ रहने लगती है, यद्यपि उसका ईश्वर से कभी तादात्म्य नहीं होता। पूर्ण आत्मा अपनी इच्छा के अनुरूप स्वरूप ग्रहण कर सकती है। अगर वह चाहे, तो सैकड़ों रूप धारण कर सकती है, और चाहे तो कोई भी रूप न ले। यह लगभग सर्वशक्तिमती हो जाती है, अन्तर केवल इतना रहता है कि यह सृष्टि नहीं कर सकती। सृष्टि करने की शक्ति केवल ईश्वर ही को है। चाहे कोई कितना भी पूर्ण क्यों न हो, वह विश्वनियन्ता नहीं हो सकता; यह काम केवल ईश्वर ही कर सकता है। किन्तु जो आत्माएँ पूर्ण हो जाती हैं, वे सभी सदा आनन्द से ईश्वर के साथ रहती हैं। द्वैतवादी लोगों की यही धारणा है।
ये द्वैतवादी एक दूसरा भी उपदेश देते हैं। ''प्रभु मुझे यह दो, मुझे वह दो'' - ईश्वर से इस तरह की प्रार्थना करने पर इन लोगों को आपत्ति है। ये समझते हैं कि ऐसा नहीं करना चाहिए। अगर मनुष्य को कुछ न कुछ वरदान माँगना ही है तो वह ईश्वर से न माँगे, बल्कि छोटे-छोटे देवी-देवताओं अथवा पूर्ण आत्माओं से मांगे। ईश्वर केवल प्रेम के लिए है; यह तो कलंक की बात है कि हम ईश्वर से भी 'मुझे यह दो, वह दो' ऐसा निवेदन करते हैं। इसलिए द्वैतवादी कहते हैं कि मनुष्य अपनी वासनाओं की पूर्ति तो निम्न कोटि के देवताओं को प्रसन्न करके कर ले, पर अगर वह मोक्ष चाहता है, तो उसे ईश्वर की पूजा करनी होगी। भारतवर्ष में असंख्य लोगों का यही धर्म है।
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