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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


आत्मा ब्रह्म से प्रक्षेपित होकर विभिन्न रूपों - वनस्पति तथा पशुलोकों - से होती हुई मनुष्य के रूप में आविर्भूत होती है। मनुष्य ब्रह्म के सब से अधिक समीप है। वस्तुत: जीवन का सारा संघर्ष इसीलिए है कि पुन: आत्मा ब्रह्म में मिल जाय। लोग इस बात को समझते है या नहीं - यह उतना महत्व नहीं रखता। विश्व भर में द्रव्यों, वनस्पतियों अथवा पशुओं में जो कुछ भी गति दीख पड़ती है, वह सारा संघर्ष इसीलिए है कि आत्मा अपने मौलिक केन्द्र पर चली जाय और शान्तिलाभ करे। प्रारम्भ में साम्यावस्था रही, पर वह नष्ट हो गयी; और अब सारे अणु-परमाणु इसी संघर्ष में हैं कि पुन: वह साम्यावस्था आ जाय। इस संघर्ष में ये अनेक बार एक दूसरे से मिलते और नये-नये स्वरूप धारण करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति में विभिन्न दृश्य देखने को मिलते हैं। वनस्पतियों में, पशुओं में तथा सर्वत्र ही जो प्रतिद्वन्द्विता, जो संघर्ष, जो सामाजिक तनाव और युद्ध होते हैं, वे सभी उसी शाश्वत संघर्ष की अभिव्यक्तियाँ हैं, जो मौलिक साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए हो रहा है।

जन्म से मृत्यु तक की इस यात्रा को संस्कृत में 'संसार' कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ है, जन्म-मरण का चक्र। इस चक्र से गुजरती हुई सारी सृष्टि ही कभी न कभी मोक्ष को प्राप्त करेगी। अब प्रश्न हो सकता है कि जब सब को मोक्ष-प्राप्ति होगी ही, तब 'संघर्ष' की क्या आवश्यकता है? जब सब लोग मुक्त हो ही जायँगे, तो क्यों न हम चुपचाप बैठकर इसकी प्रतीक्षा करें? इतना तो सत्य अवश्य है कि कभी न कभी सभी जीव मुक्त हो जायेगे; कोई नहीं रह जायगा। किसी का भी विनाश नहीं होगा, सब का उद्धार हो जायगा। अगर ऐसा हो, तो संघर्ष से. क्या लाभ? पहली बात तो यह है कि संघर्ष से ही हम मौलिक केन्द्र पर पहुँच पाएँगे, दूसरी बात यह है कि हम स्वयं नहीं जानते कि हम संघर्ष क्यों करते हैं। हमें संघर्ष करते रहना है, बस। 'सहस्रों लोगों में कुछ ही लोग यह जानते हैं कि वे मुक्त हो जायँगे।' संसार के असंख्य लोग अपने भौतिक कार्य-कलापों से ही सन्तुष्ट हैं। पर कुछ ऐसे लोग भी अवश्य मिलेंगे, जो जाग्रत हैं और जो संसार-चक्र से ऊब गये हैं। वे अपनी मौलिक साम्यावस्था में पहुँचना चाहते हैं। ऐसे - विशिष्ट लोग जान-बूझकर मुक्ति के लिए संघर्ष करते हैं, जब कि आम लोग अनजाने ही उसमें रत रहते हैं।

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