लोगों की राय
धर्म एवं दर्शन >>
आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
|
पुस्तक क्रमांक : 9677
|
आईएसबीएन :9781613013113 |
 |
|
9 पाठकों को प्रिय
27 पाठक हैं
|
आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
एक उदाहरण लो : मान लो, मैं तुमको एक ऐसी शृंखला देता हूँ जिसका आदि-अन्त नहीं है। उस शृंखला में हर सफेद कड़ी के बाद एक काली कड़ी है। और वह भी आदि-अन्तहीन है। अब मैं तुमसे पूछता हूँ कि वह शृंखला किस प्रकृति की है? पहले तो इसकी प्रकृति बतलाने में तुमको कठिनाई होगी, क्योंकि वह शृंखला तो अनन्त है। पर शीघ्र ही तुमको पता चलेगा कि यह तो एक ऐसी शृंखला है, जिसकी रचना काली और सफेद कड़ियों को पूर्वापर क्रम में जोड़ने से हुई है। और इतना भर जान लेने से ही तुमको सम्पूर्ण शृंखला की प्रकृति का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि यह एक पूर्ण आकृति है। बार-बार जन्म लेकर हम एक ऐसी ही अनन्त शृंखला की रचना करते हैं, जिसमें हर जीवन एक कड़ी है। और इस कड़ी का आदि है जन्म, और अन्त है मरण। अभी जो हम हैं, और जो हम करते हैं, किंचित् परिवर्तन के साथ उसी की आवृत्ति बार-बार होती है। इस तरह अगर हम जन्म और मरण इन दो कड़ियों को समझ लें, तो हम उस सम्पूर्ण मार्ग को समझ ले सकते हैं, जिससे होकर हमें गुजरना है।
हम देखते हैं कि हमारे वर्तमान जीवन को तो हमारे पूर्व जीवन के कार्य-कलापों ने ही निश्चित कर दिया था। जिस प्रकार हमारे वर्तमान जीवन के कार्यकलापों का प्रभाव आनेवाले जीवन पर पड़ेगा, उसी प्रकार हमारे पूर्व जीवन के कर्मों का प्रभाव भी हमारे वर्तमान जीवन पर पड़ रहा है। कौन हमें ले आता है? हमारे प्रारब्ध कर्म। कौन हमें ले जाता है? हमारे क्रियमाण कर्म। और इसी प्रकार हम आते और जाते हैं। जैसे कीड़ा अपने ही भीतर के पदार्थों से बने तन्तुओं को मुँह से निकाल-निकालकर, अपने चारों तरफ कोया बना लेता है और उसमें अपने को बाँध लेता है, वैसे ही हम भी अपने ही कर्मों के जाल में स्वयं बद्ध हो जाते हैं। कार्य-कारण-नियम के इस जाल में हम एक बार उलझ क्या जाते हैं कि इससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। एक बार हमने यह चक्र चला दिया और अब इसी में पिस रहे हैं। इस तरह यह दर्शन बतलाता है कि मनुष्य अपने ही अच्छे-बुरे कर्मों से वँधता चला जाता है।
...Prev | Next...
मैं उपरोक्त पुस्तक खरीदना चाहता हूँ। भुगतान के लिए मुझे बैंक विवरण भेजें। मेरा डाक का पूर्ण पता निम्न है -
A PHP Error was encountered
Severity: Notice
Message: Undefined index: mxx
Filename: partials/footer.php
Line Number: 7
hellothai