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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


केशव विपरीत देखता हूँ मैं, युद्ध भूमि के सब लक्षण।
न श्रेयस्कर होता प्रतीत, यदि युद्ध भूमि में हतूँ स्वजन।।३१।।
न मुझे राज-सुख साज मिले, हे नाथ नहीं चाहिए विजय।
क्या लाभ राज्य से, भोगों से, जीवन से होगा? हे केशव।।३२।।
जिनके पालन हित राज भोग, सुख लोगों के मन भाए हैं।
अपना धन-प्राण गंवाने को, वे स्वयं युद्ध में आए हैं।।३३।।
ये पिता, पितामह, पुत्र और अपने ही सारे गुरुजन हैं।
हैं पौत्र ससुर मामा, साले, ये कितने सम्बन्धीगण हैं।।३४।।
मुझ पर वे भले प्रहार करें, प्रतिकार करूँ न मधुसूदन।
पृथ्वी क्या राज्य त्रिलोकों के, मिलने का चाहे हो कारण।।३५।।
हे माधव! यदि कुरु पुत्रों को मारूँ भी तो क्या पाऊँगा।
इन आततायियों का वध कर, बस पापी ही कहलाऊंगा।।३६।।
इसलिए उचित न लगता है, मैं लडूँ और मारूँ कौरव।
अपनों को मार भला कैसे, पा सकता हूँ सुख या गौरव।।३७।।
कुल के विनाश या मित्र-द्रोह से जो-जो पाप हुआ करता।
इन लोभ ग्रस्त मूढ़ों को क्या हो सकता उसका भला पता।।३८।।
हमको तो उसका ज्ञान नाथ, फिर हम क्यों ऐसा करें पाप।
कुल-नाश जनित दोषों को, मैं बतलाता माधव! सुनें आप।।३९।।
जब होता है कुल का विनाश, तब धर्म सनातन मिट जाते।
फिर धर्म नष्ट हो जाता है, कुल में अधर्म ही बढ़ आते।।४०।।
माधव, अधर्म के बढ़ने से, होती दूषित कुल की नारी।
स्त्री के दूषित होने पर, संकर सन्तानों की बारी।।४१।।
संकर से कुलहंता, कुल ये, केवल नरकों को जाते हैं।
पितरों तक का पातन होता, पिण्डादिक भी न पाते हैं।।४२।।
संकर वर्धक कुल भक्षक के, ज्ञानी ये दोष बताते हैं।
कुल और जाति के सभी धर्म, फिर उस कुल से मिट जाते हैं।।४३।।
जिनके कुल धर्म नष्ट होते, उनकी गति का भी ध्यान धरें।
ऐसा सुनता आया माधव, बहु काल नरक वे वास करें।।४४।।
हा हंत, महापापी हैं हम, कर बैठे जो ऐसा निर्णय।
हम राज्य और सुख के लोभी, उद्यत करने स्वजनों का क्षय।।४५।।
मैं अस्त्र हीन होकर बैठूँ, हों शस्त्र लिए कुरुपुत्र सभी।
रण में इस तरह मुझे मारें, मेरा होगा कल्याण तभी।।४६।।
संजय बोले, हो शोक ग्रस्त, अर्जुन ने ऐसे शब्द कहे।
फिर धनुष बाण को तज करके, रथ-मध्य भाग में बैठ रहे।।४७।।

इति पहला अध्याय यह अर्जुन योग विषाद।
सुनते नारायण रहे, भारत हृदय प्रमाद।।
शोक और संशय बढ़े, मिट जाता है ज्ञान।
अरे पार्थ मत मूढ़ बन, होवेगा अपमान।।

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