ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ दूसरा अध्याय : सांख्य योग
इतना घबराओ नहीं, दूर करो अज्ञान।।
नश्वर तन की सोचता, भूले जीव स्वभाव।
कौन, कहाँ, कब, मारता, मिथ्या मोह लगाव।।
अर्जुन, आत्मा अमर है, व्यर्थ कर रहा सोच।
देह गेह सम्बन्ध जो माने, वह है पोच।।
संजय बोले, थे शोक मोह से, ग्रस्त पार्थ करुणा कातर।
यह दशा देख कर के उनकी, बोले मधुसूदन मुसका कर।।१।।
तुम अरे परंतप असमय में, यह मोह कहाँ से ले आए।
बीरों को ऐसा उचित नहीं, दे कुयश नर्क में ले जाए।।२।।
यह क्लीव भाव उपयुक्त नहीं, हे पार्थ त्याग तत्काल करो।
मन की कायरता तुच्छ समझ, तुम उठो शत्रु संहार करो।।३।।
अर्जुन बोले-गुरु द्रोण, भीष्म, से युद्ध करूँ मैं मधुसूदन।
कैसे मैं शर-संधान करूँ, ये मेरे पूजनीय गुरुजन।।४।।
सम्मान योग्य गुरुजन मारूँ, तब पाऊँ रक्त सना यह धन।
इससे तो श्रेयस्कर होगा, स्वीकार करूँ भिक्षा अर्जन।।५।।
जीतेगा कौन? करें हम क्या? यह भी तो नहीं जानते हैं।
कुरुपुत्रों का वध करके फिर जीना भी नहीं चाहते हैं।।६।।
मैं मोहग्रस्त हूँ, कायर हूँ, शरणागत, नाथ कृपा करिए।
हूँ शिष्य आपका हे माधव, जो श्रेय मार्ग मुझसे कहिए।।७।।
मिल जाय अकण्टक राज्य, देव-पदवी सम्पति मिल जाय सभी।
इन्द्रिय शोषक यह महाशोक क्या हो सकता है दूर कभी।।८।।
संजय बोले-हे महाराज, मधुसूदन से ऐसा कह कर।
'गोविन्द करूँगा युद्ध नहीं', कह बैठे रथ में चुप हो कर।।९।।
राजन! माधव ने जब देखा अर्जुन का ऐसा शोक भाव।
दोनों सेनाओं मध्य खड़े, प्रभुवर ने दिखलाया प्रभाव।।१०।।
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