ई-पुस्तकें >> श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई) श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
जगदम्बा सोइ जगहितकारिनि।
भगतनि हित करुना विस्तारिनि।।
मातु महालक्ष्मी के ध्याना।
होत तीन लोकनि परधाना।।
अर्घ्य पाद्य आभूषन नाना।
अक्षत पुष्प सुगन्ध चढ़ाना।।
धूप दीप नैवेद्य दिखावै।
रक्त मांस बलि सुरा पिलावै।।
उपजे विप्रवंस में जे जन।
करहिं न मदिरा मांस समर्पन।।
पुनि आचमन नमन परनामा।
चन्दन पान कपूर ललामा।।
अस पूजे षोडस उपचारहिं।
प्रनति भाव निज उर महं धारहिं।।
पूजे वाम भाग जो मुण्डा।
सो महिषासुर सीस प्रचण्डा।।
करत जुद्ध सायुज्यहिं पावा।
करुना करि असुरहिं अपनावा।।
महासिंह देवी कर वाहन।
दाहिन रहत करहु आवाहन।।
धर्म रूप ऐश्वर्य संभारे।
जड़ जंगम जग जो नित थारे।।
मन बस करि अस्तुति को गाना।
पाठ करे कर जोरि सुजाना।।
चरित एक ही बाचन चहहीं।
मध्यम चरित पाठ तब करहीं।।
पुन: प्रदक्षिन नमन प्रनामा।
क्षमा निवेदन बिनहिं विरामा।।
क्षमा निवेदन बारहिं बारा।
हवन करे पुनि विधि अनुसारा।।
पुनि श्लोक मंत्र जिमि पढ़ई।
घृत तिल खीरहिं आहुति करई।।
अथवा जे अस्तुति बतलाई।
तेहिं ते हवन करे चित लाई।।
पुनि करि महालक्ष्मी ध्याना।
मातु नाम कीर्तन गुन गाना।।
मन इन्द्रिय वस में करिके जन।
विनय प्रनाम करे कातर मन।।
उर में रखे मातु को ध्याना।
है अनन्य नित जपे सुजाना।।
राखि भगति एहिं विधि जो ध्यावै।
अन्त काल सायुज्यहिं पावै।।
भगतनि हित करुना विस्तारिनि।।
मातु महालक्ष्मी के ध्याना।
होत तीन लोकनि परधाना।।
अर्घ्य पाद्य आभूषन नाना।
अक्षत पुष्प सुगन्ध चढ़ाना।।
धूप दीप नैवेद्य दिखावै।
रक्त मांस बलि सुरा पिलावै।।
उपजे विप्रवंस में जे जन।
करहिं न मदिरा मांस समर्पन।।
पुनि आचमन नमन परनामा।
चन्दन पान कपूर ललामा।।
अस पूजे षोडस उपचारहिं।
प्रनति भाव निज उर महं धारहिं।।
पूजे वाम भाग जो मुण्डा।
सो महिषासुर सीस प्रचण्डा।।
करत जुद्ध सायुज्यहिं पावा।
करुना करि असुरहिं अपनावा।।
महासिंह देवी कर वाहन।
दाहिन रहत करहु आवाहन।।
धर्म रूप ऐश्वर्य संभारे।
जड़ जंगम जग जो नित थारे।।
मन बस करि अस्तुति को गाना।
पाठ करे कर जोरि सुजाना।।
चरित एक ही बाचन चहहीं।
मध्यम चरित पाठ तब करहीं।।
पुन: प्रदक्षिन नमन प्रनामा।
क्षमा निवेदन बिनहिं विरामा।।
क्षमा निवेदन बारहिं बारा।
हवन करे पुनि विधि अनुसारा।।
पुनि श्लोक मंत्र जिमि पढ़ई।
घृत तिल खीरहिं आहुति करई।।
अथवा जे अस्तुति बतलाई।
तेहिं ते हवन करे चित लाई।।
पुनि करि महालक्ष्मी ध्याना।
मातु नाम कीर्तन गुन गाना।।
मन इन्द्रिय वस में करिके जन।
विनय प्रनाम करे कातर मन।।
उर में रखे मातु को ध्याना।
है अनन्य नित जपे सुजाना।।
राखि भगति एहिं विधि जो ध्यावै।
अन्त काल सायुज्यहिं पावै।।
एहि भांति जे जन प्रीति से ध्याये जपे सुमिरन करे।
तजि भाव जग के परम पद में प्रीति रखि उर महं धरे।।
अनुकूल रहि जग मातु पालति मिलत इहपर सुख सकल।
नहिंप्रीति जिनमहं मातुप्रति तिनसुकृत दाहति बनिअनल।।
सुनहु नृपति धरि ध्यान, सकल सास्त्र बिधि अनुसरहु।
लहु सब सुख कल्यान, भगति राखि पूजन करहु।।१।।
० ० ०
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