ई-पुस्तकें >> श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई) श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
दीसेउ नयन रक्त कर डोरा।।
करन लगीं उत्तम मधुपाना।
अट्टहास सुनि सब भय माना।।
तेहिं सन मूढ़ करत है माया।
निज माया जिन सृष्टि उपाया।।
दुर्मद असुर पराक्रम घोरा।
रव कठोर गरजत चंहु ओरा।।
श्रृंगनि पव्वत तुंग उठावहिं।
चण्ड चण्डिका ओर ढहावहिं।।
धनुष चढ़ाइ बान बहु मारा।
भूधर खंड खंड करि डारा।।
अरुन वदन मधु मद में रांता।
अटपटात बोलीं तब माता।।
करति मूढ़ मधुपान हौं, गरजि लेहु छन माहिं।
निज कर करब तुम्हार वध सुर गरजैं येहिं पाहिं।।६।।
उछरी मातु न लाग विलम्बा।
पीठ बैठि तन पद तें चांपा।
सूल कण्ठ मारत खल कांपा।।
मुख तें प्रगट अन्य तन कीन्हा।
अर्ध भाग बाहर जब लीन्हा।।
तब आपन प्रभाव दिखरावा।
अर्द्ध वदन नहिं बाहर आवा।
आधेहि तें खल निसिचर लरई।
प्रबल असुर अति छल बल करई।।
कर कृपान लै मातु भवानी।
काटति सीस मरा अभिमानी।।
असुर सेन करि हाहाकारा।
भागे, सकल मिटा भय सारा।।
जगदम्बिका रनचण्डिका एहिं भांति निसिचर संहरी।
भागे सकल निसिचर विकल छन माहिं सब माया हरी।।
सुरगन हरष नभ सुमन बरसत देव मुनि अस्तुति करी।
गंधर्व गावहिं अपछरा नर्तहिं विपति सब जग टरी।।१।।
सुरगन के उद्धारहित, जगत मातु अवतार।
जयति निसाचर मर्दिनी, करहु मातु भव पार।।७।।
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