लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)

श्री दुर्गा सप्तशती (दोहा-चौपाई)

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9644
आईएसबीएन :9781613015889

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

212 पाठक हैं

श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में

मोहिं बिनु दुखित सकल पुरवासी।
सोच नृपति मन परम उदासी।।
पुरजन रहिहैं सकल दुखारी।
दुर्जन सकल नगर अधिकारी।।
कहां भ्रमत मम प्रिय गजराजा।
भयउ उजार तासु सब साजा।।
जे अनुचर पाछे मम फिरहीं।
ते सुख हेतु सत्रु अनुसरहीं।।
दुर्जन लूटि सकल पुरकोषा।
लेहिं विभव लागहिं मोहिं दोषा।।
बहु प्रकार नृप मन महं बूझा।
नित नव सोच पंथ नहिं सूझा।।
आश्रम फिरत बनिक इक दीसा।
पूछा तुरत ताहि अवनीसा।।
को तुम तात कहां ते आए।
शोक ग्रस्त मुख अति कुम्हिलाए।।


देखि प्रीति अति बनिक तब प्रथमहि कीन्ह प्रनाम।
कहा धनिक कुल जन्म मम बनिक समाधी नाम।।४।।

धन लोभी मम सुत अरु नारी।
विभव छीनि गृह ते निरवारी।।
परिजन एहि विधि धन सब छीना।
 फिरत विपिन विलपत अति दीना।।
इहां न समाचार कछु पावा।
केहिं विधि स्वजन न कछु कहि आवा।।
क्षेम-कुशल नहिं जानउं राजा।
जाने बिनु अति होत अकाजा।।
कतहुं कुमारग सुत चलि जाई।
जदपि-कीन्ह उन अति निठुराई।।
कहेउ नृपति सोहत नहिं बाता।
पुत्र-कलत्र सोच दिन राता।।
बनिक कहत सच वचन तुम्हारा।
उर तें नहिं बिसरत सुत दारा।।
जदपि अनय कीन्हेउ उन घोरा।
निष्ठुर मन न होत यह मोरा।।


जदपि निकासेउ गेह ते, तदपि मिटत नहिं नेह।
केहि कारन मन प्रीति अति, उपजत अस संदेह।।5।।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book