ई-पुस्तकें >> यादें (काव्य-संग्रह) यादें (काव्य-संग्रह)नवलपाल प्रभाकर
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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
गरीब की आँखें
मलिन सा चेहरा
गिरती उठती हौले-हौले
तन पर फटे हुए कपड़े
जरूर ये आँखें
किसी गरीब की हैं।
गरीबी की अकड़ ने
तोड़ कर रख दिये काँधे
टेढ़े-मेढ़े बिखरे बाल
निस्तेज निष्ठुर गोरे गाल
गड्ढ़ों में धँसती हुई सी
जरूर ये आँखें
किसी गरीब की हैं।
लक्ष्य बिन्दु पर अटकी सी
ज्यों दे रही चुनौती
हर तूफां से लडऩे की
सहमी दुख झेलने वाली
जरूर ये आँखें
किसी गरीब की हैं।
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