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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


परोपकार ही धर्म है; परपीड़न ही पाप। शक्ति और पौरुष पुण्य है, कमजोरी और कायरता पाप। स्वतंत्रता पुण्य है, पराधीनता पाप। दूसरों से प्रेम करना पुण्य है, दूसरों से घृणा करना पाप। परमात्मा में तथा स्वयं में विश्वास पुण्य है; सन्देह करना पाप। एकत्व-बोध पुण्य है, अनेकता देखना ही पाप। विभिन्न शास्त्र केवल पुण्य-प्राप्ति के ही साधन बताते हैं।

किसी भी धर्म अथवा किसी भी आचार्य द्वारा किसी भी भाषा में उपदिष्ट सारे नीतिशास्त्रों का मूल तत्त्व है 'निःस्वार्थ बनो', 'मैं' नहीं, वरन् 'तू’ - यही भाव सारे नीतिशाख का आधार है और इसका तात्पर्य है, व्यक्तित्व के अभाव की स्वीकृति - यह भाव आना कि तुम मेरे अंग हो और मैं तुम्हारा, तुमको चोट लगने से मुझे चोट लगेगी ओर तुम्हारी सहायता करके मैं अपनी ही सहायता करूँगा, जब तक तुम जीवित हो, मेरी मृत्यु नहीं हो सकती। जब तक इस विश्व में एक कीट भी जीवित रहेगा, मेरी मृत्यु कैसे हो सकती है? क्योंकि उस कीट के जीवन में भी तो मेरा जीवन है! साथ ही यह भी सिखाता है कि हम अपने साथ जीनेवाले किसी भी प्राणी की सहायता किये बिना नहीं रह सकते, क्योंकि उसके हित में ही हमारा भी हित समाहित है।

मनुष्य को नैतिक और पवित्र क्यों होना चाहिये? इसलिए कि इससे उसकी संकल्प-शक्ति बलवती होती है। मनुष्य की भली प्रकृति को अभिव्यक्त करते हुए उसकी संकल्प-शक्ति को सबल बनानेवाली हर चीज नैतिक है और इसके विपरीत करनेवाली हर चीज अनैतिक है।

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