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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


इस संसार में तुम जोड़ने के लिये आते हो। मुट्ठी बाँधकर तुम चाहते हो लेना, मगर प्रकृति तुम्हारा गला दबाती है और तुम्हें मुट्ठी खोलने को मजबूर करती है। तुम्हारी इच्छा हो या न हो, तुम्हें देना ही पड़ेगा। जिस क्षण तुम कहते हो कि 'मैं नहीं दूँगा', एक घूँसा पड़ता है और तुम चोट खा जाते हो। दुनिया में आये हुये प्रत्येक व्यक्ति को अन्त में अपना सर्वस्व दे देना होगा। इस नियम के विरुद्ध बरतने का मनुष्य जितना अधिक प्रयत्न करता है, उतना ही अधिक वह दुखी होता है। हममें देने की हिम्मत नहीं है, प्रकृति की यह उदात्त माँग पूरी करने के लिये हम तैयार नहीं हैं, और यही है - हमारे दुःख का कारण। जंगल साफ हो जाते हैं, बदले में हमें उष्णता मिलती है। सूर्य समुद्र से पानी लेता है, इसलिये कि वह वर्षा करे। तुम भी लेन-देन के यंत्र मात्र हो। तुम इसलिये लेते हो कि तुम दो। बदले मे कुछ भी मत माँगो। तुम जितना ही अधिक दोगे, उतना ही अधिक तुम्हें वापस मिलेगा। जितनी ही जल्दी इस कमरे की हवा तुम खाली करोगे, उतनी ही जल्दी यह बाहरी हवा से भर जायेगा। पर यदि तुम सब दरवाजे-खिड़कियाँ और छिद्र बन्द कर लो, तो अन्दर की हवा अन्दर रहेगी जरूर, पर बाहरी हवा कभी अन्दर नहीं आयेगी, जिससे अन्दर की हवा दूषित, गन्दी और विषैली बन जायेगी। नदी स्वयं को निरंतर समुद्र में खाली किये जा रही है और वह फिर से लगातार भरती आ रही है। समुद्र की ओर गमन बन्द मत करो। जिस क्षण तुम ऐसा करते हो, मृत्यु तुम्हें आ दबाती है।

विद्या-बुद्धि, धन-जन, बल-वीर्य जो कुछ प्रकृति हम लोगों के पास एकत्र करती है, वह समय आने पर बाँटने के लिये है, हमें यह बात स्मरण नहीं रहती, सौंपे हुये धन में आत्म-बुद्धि हो जाती है, बस इसी प्रकार विनाश का सूत्रपात होता है।

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