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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका

स्वामी के समान कर्म करो

शिक्षा का समस्त सार यही है कि तुम्हें एक 'स्वामी' के समान कार्य करना चाहिये, न कि एक 'दास’ की तरह। कर्म तो निरन्तर करते रहो, परन्तु एक दास के समान मत करो। सब लोग किस प्रकार कर्म कर रहे हैं, क्या यह तुम नहीं देखते? इच्छा होने पर भी कोई आराम नहीं कर सकता! ९९ प्रतिशत लोग तो दासों की तरह कार्य करते रहते हैं और उसका फल होता है – दुःख। ये सब कार्य स्वार्थपूर्ण होते हैं। मुक्त भाव से कर्म करो! प्रेमसहित कर्म करो! 'प्रेम' शब्द का अर्थ समझना बहुत कठिन है। बिना स्वाधीनता के प्रेम आ ही नहीं सकता। दास में सच्चा प्रेम होना सम्भव नहीं। यदि तुम एक गुलाम मोल ले लो और उसे जजीरों से बाँधकर उससे अपने लिये काम कराओ, तो वह कष्ट उठाकर किसी प्रकार काम करेगा अवश्य, पर उसमें किसी प्रकार का प्रेम नहीं रहेगा। इसी तरह जब हम संसार के लिये दासवत् कर्म करते हैं, तो उसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता और इसीलिये वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता। हम अपने बन्धु-बान्धवों के लिये जो कर्म करते हैं, यहाँ तक कि हम अपने स्वयं के लिये भी जो कर्म करते हैं, उनके बारे में भी ठीक यही बात है। स्वार्थ के लिये किया कार्य, दास का कार्य है। और कोई कार्य स्वार्थ के लिये है अथवा नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया गया प्रत्येक कार्य आनन्दायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शान्ति और आनन्द न प्राप्त हो।

जो मनुष्य प्रेम और स्वतन्त्रता से अभिभूत होकर कार्य कर्ता है, उसे फल की कोई चिन्ता नहीं रहती। परन्तु दास कोड़ों की मार चाहता है और नौकर अपना वेतन। ऐसा ही समस्त जीवन में है। उदाहरणार्थ, सार्वजनिक जीवन को ले लो। सार्वजनिक सभा में भाषण देनेवाला या तो कुछ तालियाँ चाहता है या विरोध-प्रदर्शन ही। यदि तुम इन दोनों में से उसे कुछ भी न दो, तो वह हतोत्साहित हो जाता है, क्योंकि उसे इनकी जरूरत है। यही दास की तरह काम करना कहलाता है। ऐसी परिस्थितियों में, बदले में कुछ चाहना हमारी दूसरी प्रकृति बन जाती है। इसके बाद है नौकर का काम, जो किसी वेतन की अपेक्षा करता है, 'मैं तुम्हें यह देता हूँ और तुम मुझे वह दो'। 'मैं कार्य के लिये ही कार्य करता हूँ’ - यह कहना तो बड़ा सरल है, पर इसे पूरा कर दिखाना अत्यन्त कठिन।

हम लोगों को कार्य अवश्यमेव करना पड़ेगा। व्यर्थ की वासनाओं के चक्र में पडकर इधर-उधर भटकते फिरनेवाले साधारण जन कार्य के सम्बन्ध में भला क्या जाने? जो व्यक्ति भावनाओं और इन्द्रियों से परिचालित है, वह भला कार्य को क्या समझे? कार्य वही कर सकता है, जो किसी वासना के द्वारा, किसी स्वार्थपरता के द्वारा परिचालित नहीं होता। वे ही कार्य करते हैं, जिनमें कोई कामना नहीं है। वे ही कार्य करते हैं, जो बदले में किसी लाभ की आशा नहीं रखते।

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