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व्यक्तित्व का विकास

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9606
आईएसबीएन :9781613012628

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मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास हेतु मार्ग निर्देशिका


हमारे हृदय में प्रेम, धर्म और पवित्रता का भाव जितना बढ़ता जाता है, उतना ही हम बाहर भी प्रेम, धर्म और पवित्रता देख सकते हैं। हम दूसरों के कार्यों की जो निन्दा करते हैं, वह वास्तव में हमारी अपनी ही निन्दा है। तुम अपने क्षुद्र ब्रह्माण्ड को ठीक करो, जो तुम्हारे हाथ में है, वैसा होने पर वृहद् ब्रह्माण्ड भी तुम्हारे लिये स्वयं ही ठीक हो जायेगा। यह मानो Hydrostatic Paradox (द्रव-स्थैतिक विरोधाभास) के समान है - एक बिन्दु जल की शक्ति से समग्र जगत् को साम्यावस्था में रखा जा सकता है। हमारे भीतर जो नहीं है, बाहर भी हम उसे नहीं देख सकते। वृहत् इंजन के समक्ष जैसे अत्यन्त छोटा इंजन है, समग्र जगत् की तुलना में हम भी वैसे ही हैं। छोटे इंजन के भीतर कुछ गड़बड़ी देखकर, हम कल्पना करते हैं कि बड़े इंजन के भीतर भी कोई गड़बड़ी है।

जगत् में जो कुछ यथार्थ उन्नति हुई है, वह प्रेम की शक्ति से ही हुई है। दोष बताकर कभी भी अच्छा काम नहीं किया जा सकता। हजारों वर्षों तक परीक्षा करके यह बात देखी जा चुकी है। निन्दावाद से कुछ भी फल नहीं होता।

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